वैदेही की आत्मकथा - भाग 57

आज के विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 57 )

सिय मनु राम चरन अनुरागा 
अवध सहस सम बनु प्रिय लागा ।
( रामचरितमानस )

**कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही !

99 वे  महारास चित्रकूट में हुए थे.......मेरे सुहाग की महिमा कितनी ! 

प्रियतम  से एक होकर रहना .............जब अपनें स्वामी की  प्रीति किसी तरह अन्तःस्थल को बिंधकर बैठ जाती है ............तब भला  एक हुए बिना   प्रेम की पूर्णता होगी  !

अद्वैत  सध जाता है  उस सुहागन का ............क्यों की द्वैत उस स्थिति में है कहाँ  ?    

रही मेरे सुहाग की बात  तो  सच्ची सुहागन तो मै ही हूँ ........ये मेरी ठसक है .........क्यों न हो........मैं  "रामबल्लभा"  जो हूँ  ।

मेरे हर अंग में  श्रीरघुराज राम हैं...मेरी हर धड़कन में  रघुत्तम श्रीराम हैं ।

हाँ   उस  रात्रि में.........नूतन पल्लवों से   सेज सजाई थी मेरे  प्रीतम नें ।

लगन की लहर से  गुलाब की पंखुड़ियाँ बिखेर दी थीं  ।

क्या  दिव्य चित्रकूट की छटा थी उस रात्रि को ..........

कामदगिरि पर्वत  में से झरनें बहनें लगे थे ........दूध के फेन की तरह सफेद जल  बहनें लगा था..........चन्द्रमा शुक्ल पक्ष का था ........जिससे उसकी रौशनी   पूरे वन प्रदेश में  फैल गयी थी  .........जगमग जगमग  कर शुक्ल पक्ष की रात्रि में  नहा उठी थी  पर्वतों की श्रृंखला  ।  

मेरे मन में बार बार हूंक उठ रही थी ........उस  एकत्व के मिलन की  ।

प्रेम - पीयूष की चाह  मुझे  सन्तप्त कर  रही थी.....मै बेचैन हो उठी थी ।

मुझे "मधुर रति उन्मादिनी".........यही कहा था  मेरे स्वामी श्रीराम नें ।

हे सीते !  तुम्हे देखकर   मैं  भी  "मैं" कहाँ रह पाता हूँ  ..........!

ये कहते हुये  मुझे अपनें आलिंगन में भर लिया था मेरे राम नें ।

तभी आकाश में  दिव्य नाद गूँज उठा ...............मै समझ नही पाई  कि ये नाद क्या था .............मुझे बाद में बताया कि  गन्धर्वों नें  अपनें वाद्य बजानें शुरू कर दिए थे ...............।

कामदगिरि पर्वत में    मुझे लेकर  गए   .............उस समय आकाश से पुष्पों की वृष्टि हो रही थी ........वो पुष्प भी दिव्यातिदिव्य थे ।

एक  मणि की तरह चमकती बड़ी सी शिला थी ........उसी में मेरे श्रीराम नें मुझे बिठाया........वे मुझे देखते रहे  .........मै उन्हें देखती रही ।

फिर एकाएक  उठे .........मेरे हाथों को पकड़ कर  मुझे  उठाया ।

रसिक राज  श्रीराम   आज मेरे संग  महारास कर उठे थे ........

आकाश में बिजुली चमकनें लगी .....विमानों में देवता गण बैठे हुए   दर्शन करके मन्त्र मुग्ध हुये जा रहे थे ......।

अप्सरायें   विमान में बैठी........मेरे श्रीराम का रूप देखते ही  आज कामोद्दीप्त हो गयी थीं ..........मेरे श्रीरघुनाथ के दर्शन करते ही ........उनकी नीवी खुल गयी ........उनकी चोटी ढीली हो गयी .......चोटी में लगे  फूल गिरनें लगे .......।

मूर्छित ही हो गयीं थीं   सब अप्सरायें  ।

देवताओं  की ये स्थिति थी कि  जैसे  योगियों की समाधि लग जाती है .........ऐसे ही  समाधि सी  लग गयी   ।

सब कुछ मानों ठहर सा गया था ............पूरी प्रकृति ही   इस लीला का दर्शन करना चाहती थी   ।

मेरे श्रीरघुत्तम राम  ने  मुझे  अपनें बाहों में भर लिया था ............मेरे कपोल,  मेरे नयन  .......मेरे  ...................

चूम रहे थे ............मै और वो ..............पर धीरे धीरे       "मै" खतम हो गयी थी ........"वो" ही  रह गए थे  ।

प्रेम की गली में    द्वैत का प्रवेश निषेध है .................वहाँ तो अद्वैत वालों का ही  अधिकार है ......जिसनें  "मैं"  को जला डाला .......बस  ।

बेचैनी  मेरी तब तक थी ......जब तक  मै सीता और वो राम थे .........पर  मेरी बेचैनी तब शान्त हुयी ...........जब  मै सीता हूँ ......और वो राम हैं ...ये भेद ही खतम हो गया ..............अब न मै सीता थी .....न वो राम थे .........मैं  क्या थी ...?        वो क्या थे  ?    

अजी !  "मैं" और "वो" का भेद ही कहाँ  बचा था  अब ?

कभी वो सीता बन रहे थे ......और कभी मैं राम ।

एक लय था   हमारे इस रास में ...........एक  स्वर था  जो मेरे मुँह से  निकल रहा था .............मै क्या लिखूँ  उस महारास के बारे में  ?

गन्धर्वों के  बाजे गाजे  अब   तेजी से बजनें लगे थे .................वो सब भी आकाश में नाच रहे थे ........

अरे ! इतना ही नही ............चकित मैं तब हुयी ..............जब  चित्रकूट के महात्मा, ऋषि , महर्षि  तपश्वी   सब अपनी अपनी गुफाओं से बाहर निकल कर आगये ............और   वे सब   उन्मत्त की भांति  झूमनें लगे थे ..............बार बार  मेरे श्रीराम के पास आजाते ....... उन्मत्तता के कारण   जटायें  ऋषियों की  फैल गयी थीं .........ये क्या था !

मै समझ न पाई ............उन ऋषियों की भी लम्बी लम्बी साँसें चलनें लगीं  थीं ........उनके नयन प्रेम रस से भर गए थे ।

वो आलिंगन करनें के लिए दौड़े श्रीराम को  ..........देह भान भूल चुके थे  वे ऋषि .....

वो  सब कुछ भूल चुके थे.......वो  ऋषि लोग  "मै पुरुष हूँ" .....इस भाव से भी परे जा चुके थे ......और वैसे भी उनके लिए  तो ये पुरुष और स्त्री देह मिथ्या ही है  ।

मै दूर जा कर खड़ी हो गयी थी  अब ......क्यों  की  ऋषिओं का जमावड़ा  शुरू हो गया था ..........गुफाओं से  अभी भी ऋषि मुनि निकल ही रहे थे ...इनकी संख्या  हजारों में  से होते हुये  बढ़ती ही जा आरही थी ।

और सब नाच रहे थे ......कोई हाथ पकड़ रहा था मेरे श्रीराम का .....तो कोई स्त्रियोचित ढंग से     आलिंगन कर रहा था  ।

मेरे श्रीराम मुस्कुराये ...........................

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आप क्या चाहते हैं  ऋषि ?

नृत्य रुक गया था ............रास रुक गया  था  ।

हमें  वंचित न करो प्रभु !     हमारे साथ भी  रास करो .....नृत्य करो .....

तुम ईश्वर हो ......हम सब जीव हैं ......जीवात्मा तो  ईश्वर की सनातन प्रेयसी है......हमें अपनें आपसे मिलनें दो -  हे परात्पर राम ! 

नही ऋषि !  नही !        आप  अभी  अपनी साधना पूर्ण कीजिये .......हाँ जब आपकी साधना पूर्ण होगी   तब  द्वापरयुग  आचुका होगा ......और द्वापर युग में   मैं कृष्ण  बनकर आऊंगा .....तब  आप सब गोपी बनकर आना ........हँसते हुए बोले थे मेरे  श्रीरघुनाथ जी......वो अवतार मेरा  प्रेम प्रदान करनें के लिये ही  होगा......प्रेम के लिये ही होगा ।

ये रामावतार मेरा  मर्यादित है ................पर मर्यादा  तोड़नें के लिए मै कृष्ण बनूंगा ..............क्यों की  प्रेम  तब तक प्रेम नही है .......जब तक मर्यादा न टूटे ............मर्यादा में बंधा  प्रेम कर कैसे सकता है  ।

मै जड़ चेतन  विश्व् जगत  सबको प्रेम प्रदान करूँगा ............सबके साथ नाचूँगा गाऊंगा............आप इंतज़ार कीजिये  द्वापर युग का ।

पर  हे राम !    इस  रामावतार का उद्देश्य क्या है  फिर ? 

ऋषिओं के इन प्रश्न का उत्तर  दिया  मेरे श्रीराम नें ........

त्याग और वैराग्य !
...त्याग  और वैराग्य का सन्देश देनें के लिये  मेरा ये रामावतार है  । 

इतना कहकर  शान्त हो गए थे मेरे  श्रीराम ...........

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ 

......यही उच्चारण करते हुए      अपनी अपनी गुफाओं में चले  गए थे ऋषिगण .................

शेष चरित्र कल ....

Harisharan

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