वैदेही की आत्मकथा - भाग 44

आज के विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 44 )

समाचार निषाद जब पाये ....
( रामचरितमानस )

***कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही !  

मेरे श्रीराम नें  अवध को छोड़ते ही ......"जननायक" बननें की अपनी  भूमिका  तैयार ली थी .........।

सबको गले बिना लगाये   कोई जननायक बन कैसे सकता है !

समाज नें जिसे तिरस्कृत समझा था ...........सदियों से ........उन्हें सबसे पहले  मेरे श्रीराम नें गले  लगाया ............।

रामराज्य ऐसे ही तो नही आजाता ................

कभी कभी मै सोचती हूँ ......कैकेई  नें ही  मेरे श्रीराम को जन जन तक पहुँचाया .............हाँ यही सत्य है .....।

कोई भले ही  कैकेई को दोष दे ........पर मैं  तो कहूँगी   कैकेई नें  गढ़ा है  श्रीराम को ......कुन्दन में निखार आता है  अग्नि में डालनें से ......।

कैकेई नें  कुन्दन श्रीराम को    और निखारा ......।

ये मै ही नही मानती ..........स्वयं श्रीराम  नें समय समय पर आभार माना है कैकेई का ..................।

निषाद राज !    

सदियों से समाज नें जिसे ठुकराया ............वो भील लोग .......

जो जंगल में रहते थे .............असभ्य ..........हिंसक ..............पर मेरे श्रीराम के लिये   वो लोग कितनें प्यारे हो गए थे ................।

उन्हीं  भीलों का  मुखिया  निषाद राज ................।

क्रोधी,  हिंसक.....

....पर  श्रीराम के प्रभाव से ये लोग  कितनें प्रेमपूर्ण हो गए थे ।

नही नही ......ये लोग प्रेमी थे ........पर समाज के तिरस्कार नें  इन्हें हिंसा के  रास्ते पर धकेल दिया था ............।

मेरे श्रीराम के प्रेमपूर्ण व्यवहार से ..................

सच में प्रेम  से बड़ी शक्तिशाली वस्तु कोई है ही नही .................और वही प्रेम मेरे श्रीराम में कूट कूट के भरी हुयी थी   ।

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ये  रथ  !  

इसमें  लगी ध्वजा .!.......ओह ! ये तो चक्रवर्ती महाराज का रथ है  ।

निषाद राज  अपनें  सेवकों के साथ बैठे हुए थे .....उन्होनें हमारे रथ को देखकर  यही  कहा  था  ।

मुखिया जी !   आप सच कह रहे हैं .....ये रथ  तो  चक्रवर्ती महाराज का ही है ..........पर  इसमें   चक्रवर्ती महाराज नही है ..........उनके ज्येष्ठ कुमार हैं ..............सेवको नें   निषाद राज से कहा   ।

राम !     क्या  श्रीराम हैं  इस रथ में   ?

निषाद राज  चौंक गए  थे ।

ओह !  मैने कल ही सुना था  कि ...अवध राज परिवार में  कुछ मतभेद हो गए हैं ......महारानी कैकेई नें .....अपनें पुत्र भरत के लिये  राज्य मांग लिया था .....और ज्येष्ठ कुमार को वनवास !  

निषाद राज  को सब पता है ........।

राम तो बहुत कृपालु हैं ..........सुना है मैने .................चलो  उनके स्वागत के लिये कन्दमूल फल .................सब लेकर चलो ।

निषाद राज  अपनें सेवकों के साथ .............फल फूल स्वागत के लिये लेकर चल दिए थे   ।

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हे अवध के राजकुमार  श्रीराम !  

आपके चरणों में  ये निषाद राज  प्रणाम करता है .....

कन्दमूल फल  रथ के सामनें रखते हुए ......दूर खड़े होकर  निषाद राज नें  श्रीराम  से कहा था  ।

निषाद राज !       ये नाम  महामंत्री सुमन्त्र ले भी लिया था  ।

बस इतना सुनना था  कि  एकाएक मेरे श्रीराम रथ से नीचे कूदे......

और दौड़ पड़े निषाद राज के पास ..........

घबडा गए थे निषाद राज ..................

नही नही ......मुझे मत छूईये .....मेरा स्पर्श मत कीजिये .........हम लोग  समाज से तिरस्कृत लोग हैं .....हे  प्रभु  !    हमें मत छूईये  ।

पर  क्या  मेरे श्रीराम ये सब सुनते ............निषाद राज को  अपनें  प्रेम के प्रगाढ़ आलिंगन में बाँध लिया  था ।

बड़े से बड़े वीरों को मसल देनें की ताकत रखनें वाले ये भीलों के मुखिया ..............मेरे श्रीराम का आलिंगन पाते ही .......फूट पड़े  ।

हिलकियों से रो पड़े  थे  ।

तुम मेरे हो .........निषाद राज !        

यही शब्द बार बार बोल रहे थे मेरे श्रीराम  ।

अब चलिये मेरे  नगर में ....................

बड़ी ठसक आगयी थी  एकाएक  निषाद राज में  ।

सौमित्र लक्ष्मण हँसे थे ....."मेरे नगर में"  ये शब्द सुनकर निषाद राज के मुँह से  ।

आप क्यों हँस रहे हैं  कुमार  लक्ष्मण !  

निषाद राज नें  लक्ष्मण से पूछा था  ।

जंगल को नगर कह रहे हो  ?    
लक्ष्मण नें अपनी हँसी का  कारण बताया  ।

क्यों न कहूँ "नगर"  कुमार ?

जहाँ   श्री रघुनाथ जी  आगये  ..........वही तो नगर है ............।

जंगल ?    इस बार हँसनें की बारी  निषाद राज की थी  ।

जंगल तो अब अयोध्या है ..........नही नही  जंगल भी नही......वो तो वीरान , उजड़ा  अवध ..........लंबी साँस ली थी निषाद नें  ।

कैसी होगी ना  !  अब अयोध्या  ?       

पर  सच में  श्रीराम जहाँ हैं  अयोध्या वहीं है ..............मेरा ये जंगल अब अयोध्या है ..............क्यों की मेरे श्रीराम यहाँ  हैं  .........तो क्या  गलत कहा मैने  कुमार !        मेरा जंगल भी अब नगर से बढ़कर ही है  ।

मुस्कुराये  श्रीराम .................चलो !   आज की रात्रि  आपके यहाँ विश्राम करेंगें ...........श्रीराम   नें   स्पष्ट कहा  ।

नही ..........अब बच्चे की तरह जिद्द कर उठे थे निषाद राज ।

नही .........एक दिन नही  नाथ !   पूरे चौदह वर्ष !    

हम सब  भील लोग आपकी सेवा करेंगें ..............आपके लिये ताजे ताजे कन्द मूल फल लेकर आयेंगें .............आपकी ही सेवा में हम  चौदह वर्ष  बिताना चाहते हैं ......मना मत कीजिए नाथ ! 

चरण पकड़ लिये थे निषाद राज नें  ।

आपको चौदह वर्ष वन में ही तो बितानें हैं ना .......तो यहीं बिताइये ना !

भोले पन में एक मिठास होती है ......।

नही ............आप जिद्द न करें ............हे निषाद राज !  हम  घूम घूम कर ...........चौदह वर्ष बिताना चाहते हैं ............वैसे भी वनवासी एक जगह कहाँ रहता है ...............!

बस - एक दिन ..................श्रीराम नें  कहा  ।

हे प्रभु !      सेवक प्रार्थना ही तो कर सकता है ............मानना  न मानना ये तो स्वामी के हाथ है ...........आप जिस में प्रसन्न हों  .......आप वहीं करें ......मैने तो अपनें हृदय के उदगार व्यक्त किये  थे  ।

निषाद राज नें   बड़े भोलेपन से कहा था  ।

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हम  पत्तों पर ही सोयेंगें ...........तपश्वी का भेष धारण किये हैं............तो  आचरण भी होनें चाहिये ना  तपश्वी जैसे  ।

श्रीराम नें   इशारे से  उस स्थान को बताया ......जहाँ  आज रात्रि  निवास करना है .......और    पत्तों की   शैया  बनानें का आदेश भी दे दिया ।

मन  कहाँ मानता  उन प्रेमी भक्त निषाद राज का ...की  अपनें आराध्य को  पत्तों की शैया में सुलाएं  ..........पर  श्रीराम की आज्ञा  !  

पत्तों की शैया लगा दी .........मेरे श्रीराम  और  मैं उसमें  सो गए थे  ।

पर मुझे नींद नही आयी थी ........मुझे नींद आती भला !      मेरे स्वामी श्रीराम  पत्तों पर सो रहे हैं ............और मुझे नींद आजाती ?

मैं जगी हुयी थी ..........मैं सब सुन रही थी ......लक्ष्मण भैया और निषाद राज की  वो   चर्चा !   क्या  दिव्य चर्चा थी  वो  ।

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आप नही सोयेंगें कुमार !   

बैठे  देखा लक्ष्मण को .......तो  पास में चले गए थे निषाद राज ।

आप नही सोयेंगें  कुमार !

नही......मेरे बड़े भैया    पूज्या भाभी माँ.........ये  पत्तों पर सो रहे हैं ।

थोड़े विचलित से हो गए  थे लक्ष्मण   ।

कुमार !   एक बात कहूँ  ? 

निषाद राज नें   लक्ष्मण भैया से  कुछ कहना चाहा ।

हाँ .........कहिये  ! निश्चिन्त होकर कहिये  निषाद राज !

कुमार !   

कैकेई  नें अच्छा नही किया ।

  ........निषाद राज की आँखें फिर  गीली हो गयीं थीं  ।

लंबी साँस ली    ये  बात  सुनते ही  लक्ष्मण भैया नें  ।

पता है  निषाद राज !   ये बात मै भी सोचता था ...........मै भी सोचता था कि कैकेई नें बहुत गलत किया ............

पर पता है निषाद राज !    मेरी माता सुमित्रा नें मुझे एक बात बताई ......

उन्होंने मुझ से कहा ..........किसी का कोई  दोष नही है  !

हे निषाद राज !    हम जब  किसी को दोष देते हैं  ......दूसरों  की बुराई में  हमारी रूचि होनें लग जाती है .....तब समझना  कि हम अध्यात्मतत्व  से दूर होते जा रहे हैं .........और अध्यात्म का अभिप्राय है .......अपनें आप से सम्बन्ध .........यानि हम अपनें आपसे दूर हो जाते हैं ....जब हम किसी की निन्दा करते हैं  ।

ये सृष्टि का चक्र है निषाद राज !   ये घूमता ही रहता है .............कभी दुःख है  तो कभी सुख है ................दुःख आया है .....तो पक्का समझना कल सुख आएगा ...........सुख आया है  तो  दुःख आएगा ।

यहाँ एक  वस्तु स्थिर कहाँ है   ?      

लक्ष्मण भैया   श्रीराम के चरणों को देखते हुए  बोले जा रहे थे ......और वीरासन में बैठे  निषाद राज  सुन रहे थे ....लक्ष्मण भैया की एक एक बात ..........सुन तो मैं  भी रही थी  ।

जीवन में  जिसनें  सुख और दुःख    इन दोनों को ..............समान रूप से समझ लिया  है ........तब   वह  अपनें मूल की और बढ़ रहा है  ये समझना चाहिये ..............।

 प्रभु श्रीराम  को  मैने देखा है  निषाद राज  !

इनके राज्याभिषेक की बात थी..........तब  इन्हें कोई ख़ुशी नही थी ।

और दूसरे ही क्षण इन्हें वन में आना पड़ा .....कोई दुःख नही था ।

समान रखना अपनें आप को .............ये सिखाया है मेरे श्रीराम नें  ।

लक्ष्मण  बोलते गए .......निषाद राज सुनते रहे .................

मैं भी सुनती रही थी लक्ष्मण भैया की वो बातें .........

पर मुझे  भी कुछ समय बाद नींद आगयी थी ................।

शेष चरित्र कल ............

Harisharan

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