आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 38 )
मुनि पट भूषण भाजन आनी...
( रामचरितमानस )
**कल से आगे का चरित्र -
मैं वैदेही !
लक्ष्मण आगये थे अपनी माता और अर्धांगिनी उर्मिला से विदा लेकर ।
"हम कुछ नही ले जायेंगें अवध से"............श्रीराम नें गम्भीर होकर मुझे और लक्ष्मण को कहा था ........सब दे दो ! सब दान कर दो ...
मात्र वल्कल ही हमारे वस्त्र होंगें ।
सिर झुकाकर हम दोनों नें स्वीकार कर लिया था ।
तभी महामन्त्री सुमन्त्र जी आये .......उनके नेत्रों से अश्रु बह ही थे ।
बाहर प्रजा आक्रोशित हो गयी है हे राम ! अवध की प्रजा शायद आपको वन जानें नही देगी .............
ओह ! ऐसी स्थिति में भी मुखमण्डल शान्त था मेरे श्री राम का ।
महामन्त्री जी ! चलिये बाहर .............माता कौशल्या को प्रणाम करके सुमन्त्र जी के साथ श्रीराम और हम सब बाहर आगये थे ।
ये क्या ! हजारों की भीड़ बाहर खड़ी हो गयी थी .......सब चिल्ला रहे थे ........"राम को हम नही जानें देंगें ......भरत हमें स्वीकार नही" ।
"मुझे आप लोग जानें दें......मुझे रघुकुल की रीत निभानें दें"..........ये बात हाथ जोड़कर मेरे श्रीराम नें अवध की प्रजा को कहा था ।
आप लोग जानते हैं ......हमारे रघुकुल की रीत है ..........वचन का पालन हमनें प्राण देकर भी किया है .......क्या आप ये चाहेंगे कि ये रघुकल की रीत इस राम के समय में समाप्त हो जाए .......?
सब चुप हो गए थे ............।
श्रीराम पीछे मुड़े .........महामन्त्री जी ! आप महाराज को जाकर सूचना दें कि "राम आरहा है" ।
सुमन्त्र जी तुरन्त तेज़ चाल से चल पड़े थे .........कैकेई के महल की ओर ।
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क्या कहा राम आरहा है ?
महाराज अवधेश उठनें के लिए जैसे ही तैयार हुए ..........पर फिर गिर पड़े ...........मानसिक रूप से तोड़ दिया था कैकेई नें महाराज को ।
नही, केवल श्रीराम लक्ष्मण और मैं ही नही थे .....गुरु वशिष्ठ जी और उनके साथ उनकी पत्नी अरुंधति अन्य ऋषि समुदाय भी था ।
कैकेई मात के महल में पहुँचते ही सबसे पहले दूर से ही श्रीराम नें अपनें पिता महाराज को प्रणाम किया था ।
राम !
श्रीराम को देखते ही फिर दौड़े महाराज ........पर फिर गिर पड़े ।
नही .......नही ....तू मत छू मुझे.......मै अब तेरा पति नही हूँ ।
कैकेई सम्भालनें के लिए आगे बढ़ीं हीं थीं महाराज को कि महाराज नें अन्यन्त क्रोध में भरकर यह बात कही ।
सुमन्त्र ! वो परम पवित्र कौशल्या कहाँ हैं ? उन्हें बुलाओ .......वो सहनशीलता की मूर्ति सुमित्रा कहाँ हैं उसे बुलाओ .......
बुलाओ सुमन्त्र ! हाँ ....कमसे कम वो भी तो देखे कि उसका महाराज दशरथ कितना क्रूर है .............इतनें कोमल बालकों को वन में भेज रहा है ...........बुलाओ !
सुमन्त्र जी गए .....माता कौशल्या और सुमित्रा को बुला लाये थे ।
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कौशल्या ! देख ना .........इस दशरथ नें आज ये क्या कर दिया !
कितना स्त्री लम्पट है ना ये तेरा पति ...........इस कैकेई के रूप जाल में फंस गया ........छी !
ये कहते हुये फिर उठे महाराज.....पर गिरनें वाले ही थे ......कि कौशल्या और सुमित्रा माता नें आगे बढ़कर सम्भाल लिया ।
तुम अभी भी ऐसे दशरथ को सम्भाल रही हो ?
रो रहे हैं महाराज ये कहते हुए ।
अरे लक्ष्मण ! तू खड़ा क्यों है ..........तू एक काम कर ........तू इस दशरथ को बन्दी बनाकर कारागार में डाल दे ......देख ! कैसा स्त्री के ऊपर आसक्त है ये कामी दशरथ ।
पिता जी ! आप ऐसे विचलित न होइये .........आपके वचन पालन के लिए चौदह वर्ष क्या .....हजारों वर्ष तक भी ये राम वन में रहनें के लिए तैयार है ......।
पुत्र राम ! आज के दिन रुक जा !
मुझे पता है तू नही मानेगा , वन में जायेगा ही .........पर राम ! आज के दिन रुक जा .........कम से कम एक दिन तो तेरे इस मुख चन्द्र को निहार लूँ .............महाराज दशरथ जी नें बिलखते हुये कहा था ।
पिता जी ! क्या फ़र्क पड़ता है ........आज जाऊँ या कल .......अब हमें जानें दीजिये .......लक्ष्मण और सीता भी मेरे साथ जा रहे हैं ।
जैसे ही मेरा नाम सुना महाराज नें ..........वो फिर मूर्छित होते बचे ।
नही .......बहू जानकी ! तुम मत जाओ .............मेरी प्रार्थना है तुमसे तुम मत जाओ ।
मुझे ही हाथ जोड़नें लगे थे महाराज ।
राम ! तुम्हारे पिता मोह ग्रस्त हैं ........इसलिये इनकी बातों का कोई मूल्य नही हैं ........लो ! ये वल्कल ( वनवासी वस्त्र ) और इन्हें पहन कर तुम जाओ ....शीघ्र जाओ वन ।
कैकेई !
चिल्ला पड़े थे सुमन्त्र जी ।
एक महामन्त्री अवध की महारानी का इस तरह नाम लें !
पर काँप रहे थे सुमन्त्र जी ! उनके नेत्रों से अश्रु प्रवाह हो ही रहा था ।
तुम को किस बात का अहंकार है कैकेई !
किसी नें महामन्त्री सुमन्त्र का ये रूप देखा नही था .............ये अपनें को गाली देंनें वाले से भी कभी ऊँची आवाज में बात नही करते थे ।
इतनें सौम्य .....पर आज !
मैं महारानी हूँ इस रघुकुल की ..........और तू एक मन्त्री !
कैकेई बोली ।
हट्ट ! तू कोई महारानी नही है .....तू पति हत्यारिन है .........इस विश्व इतिहास में तेरे जैसी अभागिन स्त्री कोई दूसरी नही होगी ।
आज तेनें अवध को अनाथ की स्थिति में पहुँचा दिया .......सब तेरे कारण है ..............
अत्यंत क्रोध में भर गए थे सुमन्त्र जी ।
तात सुमन्त्र ! क्रोध न करिये .........
कन्धे में हाथ रखते हुये श्रीराम नें सुमन्त्र जी को कहा था ।
माँ ! मेरे वस्त्र दो ....................
कैकेई नें वल्कल वस्त्र श्रीराम को दिए ............अपनी पीताम्बरी उतारकर कैकेई के चरणों में रख दिया श्रीराम नें ।
अपना मुकुट उतारकर ...........वो मणियों का हार जिसे पानें के लिये इंद्र भी लालायित रहता था ....उस हार को उतारकर कैकेई के चरणों में मेरे श्रीराम नें रख दिया था ।
शान्त मनस्थिति के साथ वल्कल पहन रहे थे मेरे श्रीराम ।
लक्ष्मण को भी दिए थे कैकेई नें वल्कल ......लक्ष्मण नें भी पहन लिए ।
अब मेरी और देखा था कैकेई माता नें ........................
शेष चरित्र कल ........
Harisharan
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