आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 14 )
तेहि अवसर सुनी शिव धनु भंगा....
( रामचरितमानस )
******** कल से आगे का चरित्र -
मै वैदेही !
ये घटना मुझे लंका की अशोक वाटिका में त्रिजटा नें सुनाई थी .......
सुना जब रावण नें की सिद्धाश्रम में रहनें वाला उसका प्रिय मित्र मारीच लंका में आगया है ............और रावण को सुचना देनें वाले नें ये भी बताया की वो अपनी इच्छा से नही आया .....उसे तो लंका में फेंक दिया गया है ............रावण को आश्चर्य हुआ था ...........ये मारीच कोई साधारण नही था ।
उसी समय चल दिया था रावण समुद्र के किनारे...जहाँ मारीच गिरा था ।
कैसे मारीच ! तुम तो सिद्धाश्रम में अपनें असुर समाज के सहित रह रहे थे .......मैने तुम्हे कितना निमन्त्रण दिया लंका में आनें का ....पर तुम मानें ही नहीं ..............अब कैसे आये हो यहाँ ?
रावण के पूछनें पर वह मारीच रावण को देखनें लगा ............
राम ! राम ! राम !
ये नामोच्चारण करते हुए लम्बी लम्बी साँसें ली उसनें ............
ताड़का को भी मार दिया .........मारीच नें कहा ।
क्या !
तड़का को मार दिया ? रावण चौंका .......
सुबाहु का भी वध कर दिया ...................पर मुझे नही मारा ..........मुझे लंका में फेंक दिया ........मारीच अभी भी काँप रहा था ...श्री राम के वाण को अभी तक ये भूला नही था ।
पर किसनें किया ये सब मारीच ! क्या देवराज इंद्र स्वयं आया था .......या कोई कुबेर या यक्ष ..........कौन था वो ?
रावण नें पूछा ।
नही राक्षस राज ! नही ........वो कोई देव या यक्ष नही है ..........वो तो अयोध्या नरेश दशरथ का पुत्र - राम है ............ऋषि विश्वामित्र उसे लेकर आये थे ..........अपनें सिद्धाश्रम में .......।
पता नही क्या जादू है उस राम में.......मेरी सारी शक्ति ही छीन ली ।
इतना कहकर मारीच मौन हो गया ।
तभी -
धड़ाम् ........धड़ाम् ......................
रावण नें अपनें कान बन्द कर लिए .............मारीच स्वयं अपनें स्थान से नीचे गिर गया ..............आवाज ही इतनी भयानक आयी थी ।
महाराज ! आप ठीक हैं !
..........रावण के अंगरक्षक दौड़े रावण के पास ...........।
हाँ मै ठीक हूँ ................पर सुनो ! मुझे तुरन्त खबर दो कि ये तेज़ आवाज कहाँ से आई ........ऐसा क्या हुआ जिसकी ध्वनि इतनी भयानक थी ......जाओ ! और मुझे बताओ ।
रावण नें अपनें अंगरक्षकों को भेज दिया ......उन अंग रक्षकों नें लंका के गुप्तचरों को सूचना दी ...........मात्र दो घड़ी में ही हाजिर थे अंगरक्षक और गुप्तचर रावण के सामनें ।
महाराज ! जनकपुर में जो पिनाक धनुष था वह टूट गया .....उसी की ये आवाज थी ।
पिनाक को तो मै भी नही उठा पाया था .............फिर किस वीर नें उसे तोड़ दिया ? रावण मन ही मन विचार करनें लगा ।
अच्छा बताओ उस पिनाक को किसनें तोडा ?
महाराज ! हमनें ये भी पता लगा लिया है ......अयोध्या के दो राजकुमार हैं ......जो ऋषि विश्वामित्र के साथ आये हैं ...........उनमें से जो बड़े हैं उनका नाम है .....राम .....उन्होनें तोडा है पिनाक को ।
राम ! राम ! .............मै इस राम को ही तोड़ दूँगा ..............
एकाएक क्रोध में भर गया था रावण .....................
मारीच नें कहा ..........मुझे तो लगता है ......राम कोई साधारण नही है !
मारीच ! तो तुम्हे क्या लगता है रावण साधारण है ?
मै उस राम को छोड़ूंगा नही....
........अपनें पैर पटकता हुआ रावण वहाँ से चला गया था ।
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मुझे अशोक वाटिका में त्रिजटा नें ये बात बताई थी .............
रावण बुद्धिमान था .........साम, दाम, दण्ड , भेद राजनीति कूटनीति...सबका ज्ञाता था रावण ......पर अहंकार बहुत था उसमें ।
ओह ! यहीं पर तो भगवान ब्रह्मर्षि परसुराम तप कर रहे हैं ..........
और वो क्षत्रिय से द्रोह भी करते हैं ........राम क्षत्रिय है .........
और उसनें शिव धनुष तोडा है .........अवसर बहुत अच्छा है रावण ! इसी समय परशुराम जी को ये सुचना दे दे ............बस बाकी काम स्वयं परसुराम जी ही कर देंगें ..............हा हा हा हा हा हा ........
रावण चल पड़ा लंका पार करके ..............
भगवान परशुराम जी की जय हो !
जोर से बोला था रावण.......और परसुराम जी के चरणों में लेट गया ।
ओह ! लंका पति रावण ! परसुराम जी नें अपनें नेत्र खोले ।
बताओ कैसे आना हुआ मेरे पास ।
हे भगवन् ! मुझे आज बहुत दुःख हो रहा है ...........
आपको तो पता ही है .....मेरे लिए मेरे आराध्य ही सर्वस्व हैं ..........
हाँ हाँ ......मुझे पता है तुम्हारी भगवान शंकर के चरणों में अनुपम भक्ति है ...........।
पर आज ये भक्त दुःखी है .......बहुत दुःखी है .............
( दिखावे के लिए कुछ आँसू भी बहा दिए थे रावण नें )
दुःखी क्यों हो ...............परसुराम जी नें पूछा ।
हे भगवान परसुराम ! है तो वो मेरा गुरु भाई ही ........पर गुरु भाई कहनें में भी शर्म आती है ............उस जनक को ..........उस मिथिला पति जनक को ।
क्या किया जनक नें ? परसुराम जी नें पूछा ।
महादेव ने प्रसन्न होकर जनक को "पिनाक" दिया था ....... पूजा करनें के लिए दिया था ...........पर उस जनक नें प्रतिज्ञा कर दी .......जो इस पिनाक को तोड़ेगा ......उसे मै अपनी पुत्री दूँगा ।
अब बताइये भगवन् ! ये लक्षण भक्त के तो नही हैं !
अपनें आराध्य की वस्तु को इस तरह तुड़वा देना ..........
क्या !
हाथ में फरसा उठ गया परसुराम जी का ।
क्या तोड़ दिया पिनाक ? चिल्लाये परसुराम ।
हाँ भगवन् ! तोड़ दिया पिनाक .....इसी बात का तो दुःख है .....की
हमारे आराध्य के धनुष को तुड़वा दिया जनक नें .........रावण अपनें नकली आँसू पोंछ रहा था ।
ओह ! मै अभी देखता हूँ .................और जिसनें भी तोडा हो .......उसके गर्दन को इसी फरसे से अलग कर दूँगा ...........
इतना कहकर परसुराम जी जनकपुर की और चल पड़े थे ........
रावण बहुत खुश हुआ था ..............उसे लग रहा था अब तो राम का वध होकर ही रहेगा ..........मेरी ताड़का को मारा ! मेरे सुबाहु को .....और तो और मेरे मारीच को यहाँ लंका में फेंक दिया !
अब बचो राम ! परसुराम के फरसे से .................रावण यही कहता हुआ लंका वापस चला गया था ।
शेष चरित्र कल ..............
Harisharan
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