मलूकदास जी कर्मयोगी संत थे। स्वाध्याय, सत्संग व भ्रमण से उन्होंने जो व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया उसका मुकाबला किताबी ज्ञान नहीं कर सकता। औरंगजेब जैसा पशुवत मनुष्य भी उनके सत्संग का सम्मान करता था। शुरू में संत मलूकदास जी नास्तिक थे। उनके गांव में एक साधु आए और आकर टिक गए। साधुजी लोगों को रामायण सुनाते थे। प्रतिदिन सुबह-शाम गांव वाले उनका दर्शन करते और उनसे राम कथा का आनंद लेते। संयोग से एक दिन मलूकदास भी राम कथा में पहुंचे। उस समय साधु महाराजा ग्रामीणों को श्रीराम की महिमा बताते कह रहे थे- श्रीराम संसार के सबसे बड़े दाता हैं। वह भूखों को अन्न, नंगों को वस्त्र और आश्रयहीनों को आश्रय देते हैं। मलूकदास ने भी साधु की यह बात सुनी पर उनके पल्ले नहीं पड़ी। उन्होंने अपना विरोध जताते तर्क किया- "क्षमा करे महात्मन ! यदि मैं चुपचाप बैठकर राम का नाम लूँ, कोई काम न करूँ तब भी क्या राम भोजन देंगे ?" साधु ने पूरे विश्वास के साथ कहा- अवश्य देंगे। उनकी दृढता से मलूकदास के मन में एक और प्रश्न उभरा तो पूछ बैठे- यदि मैं घनघोर जंगल में अकेला बैठ जाऊं, तब ? साधु ने दृढ़ता के साथ कहा- तब भी श्रीराम भोजन देंगे। बात मलूकदास को लग गई। अब तो श्रीराम की दानशीलता की परीक्षा ही लेनी है।
मलूकदासजी पहुँच गए जंगल में और एक घने पेड़ के ऊपर चढ़कर बैठ गए। चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे पेड़ थे। कंटीली झाड़ियां थीं। दूर-दूर तक फैले जंगल में धीरे-धीरे खिसकता हुआ सूर्य पश्चिम की पहाड़ियों के पीछे छुप गया। चारों तरफ अंधेरा फैल गया, मगर न मलूकदास को भोजन मिला, न वह पेड़ से ही उतरे। सारी रात बैठे रहे। अगले दिन दूसरे पहर घोर सन्नाटे में मलूकदास को घोड़ों की टापों की आवाज सुनाई पड़ी। वह सतर्क होकर बैठ गए। थोड़ी देर में कुछ राजकीय अधिकारी उधर आते हुए दिखे। वे सब उसी पेड़ के नीचे घोड़ों से उतर पड़े। उन्होंने भोजन का मन बनाया। उसी समय जब एक अधिकारी थैले से भोजन का डिब्बा निकाल रहा था, शेर की जबर्दस्त दहाड़ सुनाई पड़ी। दहाड़ का सुनना था कि घोड़े बिदककर भाग गए। अधिकारियों ने पहले तो स्तब्ध होकर एक-दूसरे को देखा, फिर भोजन छोड़ कर वे भी भाग गए। मलूकदास पेड़ से ये सब देख रहे थे। वह शेर की प्रतीक्षा करने लगे। मगर दहाड़ता हुआ शेर दूसरी तरफ चला गया। मलूकदास को लगा, श्रीराम ने उसकी सुन ली है अन्यथा इस घनघोर जंगल में भोजन कैसे पहुँचता ? मगर मलूकदास तो मलूकदास ठहरे। उतरकर भला स्वयं भोजन क्यों करने लगे। वह तो भगवान श्रीराम को परख रहे थे।
तीसरे पहर में डाकुओं का एक बड़ा दल उधर से गुजरा। पेड़ के नीचे चमकदार चांदी के बर्तनों में विभिन्न प्रकार के व्यंजनों के रूप में पड़े भोजन को देख कर डाकू ठिठक गए। डाकुओं के सरदार ने कहा- भगवान श्रीराम की लीला देखो। हम लोग भूखे हैं और भोजन की प्रार्थना कर रहे थे। इस निर्जन वन में सुंदर डिब्बों में भोजन भेज दिया। इसे खा लिया जाए तो आगे बढ़ें। मलूकदास को हैरानी हुई कि डाकू भी श्रीराम पर इतनी आस्था रखते हैं कि वह भोजन भेजेंगे। वह यह सब सोच ही रहे थे कि उन्हें डाकुओं की बात में कुछ शंका सुनाई पड़ी। डाकू स्वभावतः शक्की होते हैं। एक साथी ने सावधान किया- सरदार, इस सुनसान जंगल में इतने सजे-धजे तरीके से सुंदर बर्तनों में भोजन का मिलना मुझे तो रहस्यमय लग रहा है, कहीं इसमें विष न हो। यह सुनकर सरदार बोला- तब तो भोजन लाने वाला आस-पास ही कहीं छिपा होगा। पहले उसे तलाशा जाए। सरदार के आदेश पर डाकू इधर-उधर तलाशने लगे। तभी एक डाकू की नजर मलूकदास पर पड़ी। उसने सरदार को बताया। सरदार ने सिर उठाकर मलूकदास को देखा तो उसकी आंखें अंगारों की तरह लाल हो गईं। उसने घुड़ककर कहा- "दुष्ट ! भोजन में विष मिलाकर तू ऊपर बैठा है ! चल उतर।" सरदार की कड़कती आवाज सुनकर मलूकदास डर गए मगर उतरे नहीं। वहीं से बोले- व्यर्थ दोष क्यों मंढ़ते हो ? भोजन में विष नहीं है। सरदार ने आदेश दिया- पहले पेड़ पर चढ़कर इसे भोजन कराओ। झूठ-सच का पता अभी चल जाता है। आनन-फानन में तीन-चार डाकू भोजन का डिब्बा उठाए पेड़ पर चढ़ गए और छुरा दिखा कर मलूकदास को खाने के लिए विवश कर दिया। मलूकदास ने स्वादिष्ट भोजन कर लिया। फिर नीचे उतरकर डाकुओं को पूरा किस्सा सुनाया। डाकुओं ने उन्हें छोड़ दिया। वह स्वयं भोजन से भाग रहे थे लेकिन प्रभु की माया ऐसी रही कि उन्हें बलात भोजन करा दिया। इस घटना के बाद मलूकदास ईश्वर पक्के भक्त हो गए। गाँव लौटकर मलूकदास ने सर्वप्रथम एक दोहा लिखा–
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम॥
यह दोहा आज खूब सुनाया जाता है। आपके कर्म शुद्ध हैं। आपने कभी किसी का अहित करने की मंशा नहीं रखी तो ईश्वर आपके साथ सबसे ज्यादा प्रेमपूर्ण भाव रखते हैं, चाहे आप उन्हें भजें या न भजें। आपके कर्म अच्छे हैं तो आप यदि मलूकदास जी की तरह प्रभु की परीक्षा लेने लगे तो भी वह इसका बुरा नहीं मानते। आपके सत्कर्मों का सम्मान करते स्वयं परीक्षा देने आ जाते हैं। छोटे-बड़े की भावना ईश्वर में नहीं होती। ये विकार तो मनुष्य को क्षीण करते हैं।
हरि समान दाता कोउ नाहीं।
सदा बिराजैं संतनमाहीं॥१॥
नाम बिसंभर बिस्व जिआवैं।
साँझ बिहान रिजिक पहुँचावैं॥२॥
देइ अनेकन मुख. पर ऐने।
औगुन करै सोगुन करि मानैं॥३॥
काहू भाँति अजार न देई।
जाही को अपना कर लेई॥४॥
घरी घरी देता दीदार।
जन अपने का खिजमतगार॥५॥
तीन लोक जाके औसाफ।
जनका गुनह करै सब माफ॥६॥
गरुवा ठाकुर है रघुराई।
कहैं मूलक क्या करूँ बड़ाई॥७॥
"जय जय श्री राधे"
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