“श्रीआनंदी बाई जी का मंदिर” स्थान – “श्रीआनंदी बाई जी का मंदिर” अठखम्भा पुराने शहर में श्री राधावल्लभ जी के घेरा पुराने मंदिर की दायी ओर एक छोटा सा मंदिर है. स्थापना – इस मंदिर का निर्माण आनंदी बाई ने संवत १६६३ में कराया था. विग्रह – श्री आनंद वल्लभ और श्री राधा रानी जी का विग्रह स्थापित है. आनंदी बाई जी का शुद्ध वात्सल्य भाव आनंदी बाई का जन्म एक ब्राह्मण कुल में हुआ भगवत-सेवा, वैष्णव-सेवा, का बचपन से ही इनमे तीव्र अनुराग था. विवाह के पूर्व ही पति का देहांत हो गया तब तो संसार से विरक्त होकर भगवत-सेवा में निमग्न हो गई. पिता ने एक मंदिर बनवा दिया जिसमे श्रीआनंदवल्लभ – श्रीराधाजी की प्रतिष्ठा की. और कुछ समय बाद श्रीधाम वृंदावन आ गई. उन्होंने अपने अति लाडले पुत्र श्री आनंदवल्लभ और प्यारी पुत्र वधु श्रीराधा जी के श्री अर्चविग्रह को अमृतसर से लाकर वृंदावन में प्रतिष्ठित किया. श्रीआनंदवल्लभ जी में आनंदी बाई जी का शुद्ध “वात्सल्य-भाव” था. यू तो वे रामानुज संप्रदाय से दीक्षित थी परन्तु शुरू से ही श्री राधाकृष्ण में दृढ निष्ठा थी. युगल सरकार की रसिकता में बिमुग्ध रहती और प्राणवत उनकी सेवा करती. राधाकृष्ण को पुत्र और पुत्र वधु मानती थी, और पुत्र और पुत्र वधु ऐसे कि अपनी मनचाही सेवा लेते, राजी, राजी नहीं तो बिगड़ कर मचल कर भी माँ को सेवा के लिए विवश कर देते. एक दिन की बात है माँ आनंदी बाई मंदिर के बाहर बैठी रो रही थी. उसी समय एक बाबा किशोरीदास जी वहाँ से निकले जब आनंदी बाई को रोते हुए देखा तो बाबा ने पूँछा –माँ ! क्या हो गया क्यों रोती हो ? वे बोली – बेटा ! क्या करूँ ? आज बहुरानी बड़ी मचल रही है कल की बात है, मै बाजार गई थी वहाँ मैंने मुंशी की दुकान पर एक साड़ी देखी,किन्तु बहुत कीमती थी इसलिए उसे छोड़कर दूसरी साड़ी ले आई, बहू राधा उसे पहिन ही नहीं रही है मै पहिनाती हूँ, वह उसे उतार कर फेक देती है. जिद्द पर अड़ गई है, कहती है पहिरुगी तो वही साड़ी जिसे तू कल छोड़ आई है . बाबा ने माँ को आश्वस्त किया और वही साड़ी ले आये माँ ने साड़ी लाकर सामने रखी , तुरंत राधा जी ने अपने आप उस साड़ी को ऐसे कलात्मक ढंग से पहिन लिया कि माँ बाबा तो क्या, समस्त दर्शक भी उस दिन साड़ी की लहरदार लपेटो को देखकर रह गए. इसी तरह आनंद वल्लभ जी को सूजी का हलवा इतना प्रिय था कि एक दिन भी यदि भोग में हलवा न आवे तो भोजन छोड़ कर दूर बैठ जाते. आनंद बाई को कभी-कभी अमृतसर जाना पडता, रुपये पैसे कि व्यवस्था करने के लिए. क्योकि उनके पुत्र और पुत्र वधु इतने खर्चीले जो थे, वे हमेशा कर्ज में ही रहती थी एक बार वे अमृतसर से गंगा स्नान के लिए हरिद्वार चली गई पीछे एक पुजारी जी को सब समझा गई , अब पुजारी जी ने गुंजाईश न होने के कारण हलवे का भोग बंद कर दिया. एक दिन दो दिन देखा फिर श्री आनंद वल्लभ हरिद्वार ही जा पहुँचे. स्वपन में कहा – माँ ! मुझे तीन दिन से हलवा नही मिल रहा है तुम शीघ्र चलो माँ दूसरे दिन ही सबेरे हरिद्वार से वृंदावन आ पहुँची आने पर पता चला कि वास्तव में तीन दिन से लाडले को हलवा नहीं मिल रहा है. इस प्रकार हजारों नाज नखरे सहती हुई आनंदी बाई आनंद से फूली न समाती श्री युगल किशोर को रिझाने के लिए अनेको प्रकार के उत्सव, संगीत कार्येक्रम,तो कभी फूल बंगला,कभी नौका बिहार आदि महोत्सव मानती आज भी श्री धाम वृंदावन में “आनंदी बाई के मंदिर” के नाम से प्रसिद्ध है
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