आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 93 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
( मैं वैदेही ......लंका में मुझे मिली थी त्रिजटा ये विभीषण की पुत्री थी ...जो मैं लिख रही हूँ उसे त्रिजटा नें ही मुझे बताया था )
राम !
रावण का मन मस्तिष्क झंझावातों से घिर चुका था ......वो बारबार कह रहा था.....खर दूषण को मार दिया ! राम नें खर दूषण को मार दिया ।
मन्दोदरी नें उसे शयन करनें के लिये कहा ............पर उसे नींद कहाँ ?
अर्धरात्रि में ही निकल गया था अकेला रथ लेकर.....समुद्र किनारे ।
समुद्र में कोलाहल है ......लहरें उठ रही हैं........उनका शोर है ।
राम !
उसके मन में यही नाम बारबार गूँज रहा है ................
तो क्या परमपुरुष नें अवतार ले लिया !
राम क्या पूर्णब्रह्म परमात्मा हैं ?
लंकेश बारबार अपनें आपसे ही ये प्रश्न करता है ।
फिर उसका हृदय शान्त हो जाता है .................मेरा उद्धार करनें के लिए परमपुरुष अवतरित हुए हैं ..................तो फिर मैं उनके इस कार्य में सहायक क्यों न बनूँ ? उद्धार तो मेरा ही होगा ना ?
नही .......उद्धार तो मेरी सम्पूर्ण जाति का ही होना चाहिये .........मेरे नातेदार, मेरी प्रजा.... सबका उद्धार हो ....................
फिर हँसता है रावण कुछ देर बाद ...........
मुझ से नही होगी निष्काम भक्ति उस परमात्मा की ...........
मैं तो भिडूंगा उस परमात्मा से .............हाँ लड़ूंगा मैं उससे ..........फिर तो मुझे मारना ही पड़ेगा उसे ..........और परमात्मा के हाथों मरा तो मुक्त होना ही है ।
लम्बी साँस लेता है रावण और नीले आकाश को देखता है .........
राम !
और अगर वो साधारण मानव हुआ तो हमारे राक्षसों का आहार बन जाएगा वो राम .......स्वाद लोलुप तो होते ही हैं हम राक्षस .........
और सुपर्णखा कह रही थी ......उसकी पत्नी सीता बहुत सुन्दर है ......
रावण का मन फिर बदल गया ...........कह रही थी सूर्पनखा की वो दोनों आपस में बहुत प्रेम करते हैं..............अगर मैं उन दोनों को अलग कर दूँ तो ? रावण की बुद्धि बहुत तेज़ चल रही थी ।
मैं अगर रामपत्नी सीता का हरण करके लंका ले आऊँ तो ?
क्यों की सुपर्णखा के कहे अनुसार तो राम मर ही जाएगा सीता के वियोग में .........और अगर नही भी मरा तो मानव है राम ....सौ योजन सागर पार करके लंका तो नही आसकता ...........
हाँ यही ठीक रहेगा .................रावण को ये विचार ठीक लगे ।
तभी सामनें देखा रावण नें ..........लंका के पास में ही एक और छोटा सा टापू है ........उसे याद आया इस टापू में तो 'मारीच" रहता है ।
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ये मारीच उत्तर में सिद्धाश्रम में रहता था ............इसके साथ सुबाहु भी तो था ............ताड़का भी तो थी ।
पर एक दिन ये सीधे उत्तर दिशा से दक्षिण लंका के ही पास इस द्वीप में आ गिरा था................
रावण यही सब सोचते हुए उस द्वीप की ओर बढ़ रहा था ।
इसी मारीच नें मुझे कहा था - कि समस्त विद्याओं के ज्ञाता ऋषि विश्वामित्र दो राजकुमार को लाये थे सिद्धाश्रम में .............
वो दो राजकुमार यही तो थे ...........रावण चला जा रहा था उस मारीच के द्वीप में .................
इसको छोड़ दिया राम नें ........मारीच को मारा नही ...........हाँ सुबाहु और ताड़का को मार दिया था .......पर इस मारीच को नही मारा ।
रावण यही सब के सोचते हुये मारीच के पास पहुँच गया था ।
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जब से राम का बाण लगा है इसे .............इस मारीच का तो जीवन ही बदल गया है ..................मृग चर्म मैं बैठा है ......मस्तक में त्रिपुण्ड्र ..गले में रुद्राक्ष ..............और ध्यान मग्न ।
रावण मारीच को देखकर हँसा था.........और व्यंग करता हुआ बोला -
हे महामुनि मारीच ! मै लंका पति रावण आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ।
"रावण" सुनते ही मारीच उठा .........घबडा कर उठा .........रावण को प्रणाम किया .......फिर अर्घ्य पाद्य से पूजन भी किया ।
कैसे आये लंकेश ? मारीच नें विनम्रता से पूछा ।
राम को जानते हो ? रावण नें इतना ही पूछा था ।
वो तो काँपने लगा............उसका शरीर पसीनें से लथपथ हो गया ।
नाम मत लो उसका ! वो चिल्लानें लगा मारीच ।
पर क्या हुआ मारीच ? राम में ऐसा क्या है ?
राम ! वो कालों का महाकाल है ...........वो मौत का भी मौत है ......
हे लंकापति ! तुम नही जानते हो ..............वो क्रोध से अगर इस सृष्टी को भी देख लेगा तो ये सृष्टि जल उठेगी .............वो राम साधारण नही ..........मौत भी डरती है उससे ।
ऐसा क्या हुआ तुम्हारे साथ मारीच ? बड़े शान्त भाव से रावण नें मारीच के कन्धे में हाथ रखकर पूछा था ।
उसके अग्निवर्षा वाले बाणों को मैं भूला नही हूँ लंकेश !
अभी भी "राम" कहते हुये या सुनते हुए भी मैं काँप उठता हूँ .........
मुझे नींद कहाँ आती है दशानन ! देख नही रहे अर्धरात्रि के समय मैं यहाँ बैठा हूँ ..........मैं अंदर से बहुत डर गया हूँ राम से ।
पर राम के बारे में तुम मुझ से ये सब क्यों पूछ रहे हो ?
मारीच नें पूछा रावण से ।
वो राम यहाँ पंचवटी में आया है .........रावण नें कहा ।
मेरी बहन सूर्पनखा भ्रमण में गयी थी ...........तो राम ने मेरी बहन के नाक कान काट दिए ...............।
वीर से भी बड़ा महावीर है राम ...............मारीच नें कहा ।
प्रतिशोध लेनें की सोचना भी मत राम से ..................
कोई बात नही , जो हुआ उसे भूल जाओ .......और राम से दूर रहो ।
हे रावण ! प्रतिशोध की ज्वाला कितनी भयानक होती है इस बात को मुझ से ज्यादा भला कौन जानता है ?
लंकेश ! सिद्धाश्रम में मेरे भाई सुबाहु को राम नें मार गिराया ......पर मुझे नही मारा ........मुझे तो एक बाण मात्र मारा था .....वो भी बिना फण का बाण .........उसी बाण के कारण मैं इस द्वीप में आ गिरा ।
पर प्रतिशोध की आग मेरे अंदर जल रही थी ..................
मैने सुना कि अयोध्या नरेश दशरथ नें अपनें पुत्र राम को वनवास दे दिया .........और वो इन दिनों चित्रकूट में रह रहे हैं ..........
मैं "सुबाहु" का बदला लेनें के लिये अपनें कुछ राक्षसों को साथ में लेकर गया ......मैं और मेरे साथी हिरण बन गए थे.....मारीच नें कहा ।
हम सब आक्रमण करनें ही वाले थे राम के ऊपर .....कि राम नें दो बाण मारे ......एक बाण से मेरे साथ के सारे मित्रों को मार दिया पर पता नही क्यों इस बार भी मुझे बिना फण का बाण मारा और यहीं पर मुझे गिरा दिया .....मैं वापस यहीं आगिरा .........ओह ! राम का वो बाण ......अग्नि वर्षा करता हुआ वो बाण ।
मारीच रावण को बता रहा था ..........रावण मन ही मन मुस्कुराया ........अब ये मारीच फिर हिरण बनेगा !
शेष चरित्र कल ...........
Harisharan
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