आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 92 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
'मूर्ख रावण ! तू आँखें होते हुये भी अंधा है .....देख ! एक अयोध्या के राजकुमार नें तुझे चुनौती दी"......सूर्पनखा लंका में पहुंची थी ....और दशानन के सामनें खड़ी होकर दशानन को फटकारे जा रही थी ।
सगी बहन है रावण की सूर्पनखा ।
रावण अपनें सिंहासन से उठकर खड़ा हो गया था ...........
बहन ! क्या हुआ ? तूनें ये मुँह में कपड़ा क्यों लगा रखा है ........अपना चेहरा क्यों नही दिखा रही !........रावण बोला ।
तेरी प्रतिष्ठा बचा रही हूँ मूर्ख भाई ! रावण को गाली दिए जा रही थी .....समस्त लोकपालों के सामनें ........पर बहन भाई को कुछ भी बोल सकती है .......ये उसका अधिकार होता है ।
मेरी प्रतिष्ठा ? बात क्या है, पूरी बात बता बहन !
देख !
अपने चेहरे पर रखा कपड़ा सूर्पनखा नें जैसे ही हटाया ..........
रावण से देखा नही गया .......उसकी आँखें ऐसी हो गयीं जैसे आग उगल रही हों ..............वो क्रोध में भर गया था ।
पर ये नाक कान किसनें काटे ? मुझे पहेली मत बुझा सीधे साफ बात क्या है ... वो बता । रावण जल्दी सुनना चाहता था सारी घटना ।
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अयोध्या नरेश दशरथ का पुत्र है वो राम ! सूर्पनखा नें कहा ।
राम !
चौंक गया रावण ...........................
तुम जानते हो भाई ? सुपर्णखा नें पूछा ।
रावण कुछ नही बोला ..........बात बता क्या हुआ ! इतना ही बोला था लंकेश ।
वो तुम्हारा काल बनकर आया है ...............राम ............
दण्डकारण्य के सभी ऋषि मुनियों को आश्वासन देकर बैठा है पंचवटी में ............कि वो राम तुम्हे और तुम्हारे समस्त राक्षस समुदाय को मिटाकर ही रहेगा ...........सुपर्णखा बोले जा रही थी ।
मैं गयी थी भाई !.......ऐसे ही भ्रमण करती हुयी पंचवटी में पहुंची थी ।
वो राम अपनें अनुज के साथ है ......और उसके साथ पत्नी भी है ।
भाई ! बहुत सुन्दर है राम की पत्नी ................
भाभी बुरा मत मानना ..............मन्दोदरी की ओर देखते हुए बोली .....भाभी मन्दोदरी तो उनके दासी बनने लायक भी नही हैं ।
भाई ! मै तुम्हारे लिये राम पत्नी को यहाँ लेकर आनें वाली थी....
पर राम नें इशारा करके अपनें छोटे भाई से मेरे नाक कान कटवा दिए ..............
सूर्पनखा चिल्लाई ...........रावण ! ये मेरी नाक नही कटी है तेरी कटी है .............रावण की बहन ! उसकी ये स्थिति ........तेरे बल पौरुष को धिक्कार है रावण ! ।
रावण नें कुछ देर विचार किया ..........फिर बोला ......
तेरे और भाई भी तो हैं दण्डकारण्य में ........खर दूषण त्रिशिरा और अकम्पन ....ये सब वहाँ हैं तो .........फिर मेरे पास क्यों आयी तू ?
सब को मार दिया राम नें..........सूर्पनखा बोली ।
क्या ! ! !
इस बार रावण डर गया ......और उसके मुख मण्डल में डर स्पष्ट दिखाई दे रहा था .................।
खर दूषण कोई साधारण योद्धा नही थे .......मेरे समान ही तो वीर थे वो ...........फिर राम नें उनको मार गिराया ....!
रावण सोच रहा है .......पर उसके कुछ समझ में नही आरहा था ....क्यों की खर दूषण को रावण के बराबर ही शक्ति मिली थी ...........जब वो राम खर दूषण को मार सकता है .......तो हे रावण ! वो तेरा भी वध कर सकता है ..........।
वापस सिंहासन में बैठ गया रावण ........सूर्पनखा बोलती रही ...बोलती रही ......पर रावण का ध्यान अब कहीं ओर चला गया था ....शायद भूत काल में ।
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हा हा हा हा हा हा ...........मैं तोडूंगा इस पिनाक को ............
पर रावण ! ये हमारे इष्ट महादेव का धनुष है .........इसको हमारा तोड़ना उचित नही होगा ............बाणासुर नें कहा ।
बाणासुर ! तुम इसी सोच में पड़े रहो ........पर मैं दशानन इस धनुष को अवश्य तोडूंगा.........तोड़नें के लिये आगे बढ़ा था रावण ।
और पिनाक धनुष को हिला डुलाकर उठानें का प्रयास भी करनें लगा था .........हाँ .............जैसे तैसे रावण नें अपना हाथ पिनाक के भीतर डालना चाहा .....ताकि पिनाक उठ सके ..............।
मुझे हँसी आती है उस जनकपुर की घटना को याद करके .................
पिनाक थोडा ही उठा ............पर फिर अपनें स्थान पर आगया ।
रावण चिल्लाया ..........क्यों की उसका हाथ दव गया था .........उसे दर्द हो रहा था .......वो चिल्लाये जा रहा था ..................
तब मुझे भेजा मेरे कृपालु पिता जनक जी नें .........रावण का भी दुःख उनसे देखा नही गया था ।
मैने एक ही हाथ में पिनाक को उठा दिया..............
रावण नें मुझे देखा .........बड़े गौर से देखा था ............फिर मुस्कुराया ...................और मेरे मस्तक को देखनें लगा .......मुझे पता था कि ये बहुत बड़ा ज्योतिषी है ..................मस्तक को देखकर .......मुझे कहनें लगा .............जनकराज किशोरी ! तुम्हे तो दुःख ही दुःख मिलेंगें .......
वनवास मिलेगा ..............वन में जाओगी ..............हाँ तुम्हारे पति भी साथ होंगें उस समय .......................
ओह ! फिर चौंक गया रावण ........................ तुम्हारे हाथों मेरा सर्वनाश ! रावण हँसा ..............तेरे हाथों मेरी लंका का सर्वनाश होगा ....................तू कौन है ?
रावण से टकरानें वाली कोई साधारण नही हो सकती ...............
तू ? रावण नें आँखें बन्द कर ली थीं ..................
फिर मुस्कुरानें लगा ..............आँखें खोल ली उसनें ............तू तो जगदम्बा है ......तू तो जगत जननी है ...........आ ! मेरी लंका में आ .....और मेरा उद्धार कर .........आ .........मेरा निमन्त्रण है तुझे .......।
इतना कहकर रावण चला गया था वहाँ से ।
आज उन्हीं बातों को सोच रहा था रावण ।
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उसकी पत्नी का नाम सीता है ?
रावण नें पूछा सूर्पनखा से ।
हाँ भाई ! सीता ही नाम है उसका ..................
रावण गम्भीर हो गया ..........कबन्ध को भी क्या राम नें ही मारा है ?
हाँ भाई ! कबन्ध को राम नें ही मारा है ............।
राम वीर हैं..........उनके जैसा पुरुष मैने विश्व् में नही देखा भाई !
वो जब बाण चलाते हैं......तब ऐसा लगता है .....जैसे गीदड़ों के झुण्ड को सिंह सहज होकर आक्रमण करता है .......ऐसे राम बड़े से बड़े योद्धा से भी सहज ही लड़ते हैं .......और और .......
तू शत्रु की प्रशंसा कर रही है ! ......इस बार रावण चिल्लाया ।
सूर्पनखा चुप हो गयी .....उसके नाक से रक्त बह रहा था ......बहन ! तू इस लंका को ही अपना समझ और यहीं रह .................मैं उस राम से बदला लेकर रहूंगा ......तू चिन्ता मत कर ................।
इतना कहकर चिकित्सा के लिए सूर्पनखा को भिजवा दिया था रावण नें...। रावण भी सभा से लौटकर आगया अपनें महल..........पर वो सोच में पड़ गया था .......क्या राम के द्वारा ही तेरा वध होगा रावण ?
खर, दूषण त्रिशरा ये कोई साधारण तो नही थे .......इनको मारनें वाला फिर साधारण कैसे हो सकता है ?
रावण के मन मष्तिष्क में आज आँधी चल रही थी ..........
( मुझे ये बातें त्रिजटा नें बताई थीं लंका में , उसनें कहा था ......वो उस समय उस सभा में ही उपस्थित थी .........क्यों की लंका में सबसे ज्यादा बुद्धिमान इस विभीषण की पुत्री को ही माना जाता था.......इसलिये उसे कहीं आनें जानें में कोई रोकता नही था )
शेष चरित्र कल.......
Harisharan
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