आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 86)
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
हम लोग अब दण्डकारण्य क्षेत्र में रहनें लगे थे .......पंचवटी में ।
दोनों भाई जब कन्द मूल फल फूल लेनें जाते थे ......मैं अकेली होती ।
तब मेरे सामनें आजाते थे वयोवृद्ध जटायू जी ।
वो मुझे लेकर भयभीत रहते..........उनका कहना था की राक्षसों का आतंक बहुत है इस क्षेत्र में.............
मैं उनके पास चली जाती.......कुटिया का कार्यपूर्ण करके .......
वो मुझे अपनी पुत्री मानते थे........मुझे अपना स्नेह देते रहते थे ।
पुत्री सीता ! ये स्थान रावण का है......जटायू जी नें एक दिन कहा ।
राक्षसराज रावण..............जो समस्त राक्षसों का मुखिया है ।
ये दण्डकारण्य का स्थान रावण का ही है ......................
वैसे रावण के ससुर हैं "मय" नामक राक्षस ।
एक दिन पुत्री सीता ! इसी वन में आया था रावण ............पृथ्वी का सबसे सुन्दर स्थान है ये ..........नाना प्रकार के फल फूल यहाँ पर्याप्त मात्रा में थे .........फूलों को तोड़ रही थीं मन्दोदरी ।
अतीव सुन्दरी मन्दोदरी..............कैसे न हो सुन्दरी ये मन्दोदरी ।
मय नामक राक्षस , जिन्हें एक बार किसी स्वर्ग की अप्सरा से प्रेम हो गया था ......पर अप्सरा अप्सरा थी ......वो क्यों रहनें लगी पृथ्वी में .........पर "मय" भी कम नही थे........ऐसी तपस्या की ...कि उस अप्सरा को फिर आना पड़ा...........
हे मय ! मैं कोई मानवी नही हूँ ........मैं अप्सरा हूँ ...........और अप्सरा किसी मानवी की पत्नी कैसे बने !
मैं कुछ भी करनें को तैयार हूँ .....पर हे देवी ! मेरे साथ चलो ..........
लाख कोशिश की पर अप्सरा क्यों बसने लगी पृथ्वी में !
तप करना आरम्भ किया "मय" नें .....6 हजार वर्ष तक तप किया ........विधाता प्रसन्न हुए...........हे मय ! वो अप्सरा है वो कैसे तुम्हारे साथ रह सकती है ...........आप जानों विधाता ....मुझे तो वही अप्सरा चाहिये .........."मय" राक्षस नें कहा ।
ठीक है तुम सौ वर्ष तक के लिये अप्सरा के साथ रह सकते हो .......
सौ वर्ष पूरे हुये ......वह सौंदर्य की देवी, अपने जैसी एक और देवी दे गयी पुत्री के रूप में...........अप्सरा से उतपन्न हुयी थी इसलिये सुन्दरी थी ..........बहुत सुन्दर थी ।
जटायू जी मुझे इस दण्डकारण्य का इतिहास सुनानें बैठे थे .........
"मन्दोदरी" यही नाम रखकर चली गयी थी वो अप्सरा ............
कृश उदर .......इसी के कारण तो नाम मन्दोदरी पड़ा था ।
आज यही फूलों के बगिया में अपनी सखियों के साथ घूम रही थी ।
हाथ पकड़ लिया था रावण नें मन्दोदरी का ...............
काला वर्ण रावण का .......गठीला शरीर ........और वज्र की तरह कठोर देह ..............लाल आँखें ................ऐंठन वाले मूँछ जिनमें ताव देते रहना रावण नें अपना स्वभाव बना लिया था ।
मन्दोदरी को रावण अच्छा लगा ...........हाँ लजाई आँखों से रावण को देखा था ....
रावण समझ गया ............मन्दोदरी को पानें के लिये रक्त बहाना नही पड़ेगा ................पर ......
मय नामक दानव आ टकराया ..............पर राक्षस राज के नाम से तो रावण नें ख्याति पाई थी ..............."मय" समझ गया कि अपनी पुत्री का कन्यादान करनें में ही मेरी भलाई है ...........कन्यादान कर दिया ।
और सीता पुत्री ! इतना ही नही .................दहेज में ये दण्डकारण्य भी रावण को दे दिया ।
पर रावण दिग्विजयी बनना चाहता था ........और बन ही गया .........
आज कौन उसके टक्कर में खड़ा हो सकता है ..................
जटायू जी ! मेरे श्रीराम ! मैने दृढ़ता से कहा ।
ये रावण मेरे स्वयम्वर में भी आया था जनकपुर ......तब उस पिनाक धनुष को उठानें में इसकी ऊँगली दव गयी थी .....जटायू जी ! तब मैने ही पिनाक को उठाया था ।
हाँ आगे क्या हुआ जटायू जी ! मैने फिर पूछा ।
आगे ? आगे तो दिग्विजयी बननें निकल गया था रावण ।
हे सीता पुत्री ! रावण की एक बहन भी है .......जिसका नाम है सूर्पनखा ..............रावण उससे बहुत प्रेम करता है .............पर एक दिन रावण को सूर्पनखा नें बिना बताये ..............विद्युत्जिव्हा नामक राक्षस से विवाह कर लिया ..........।
हे सीते पुत्री !
रावण उस समय दिग्विजय में था ......पर जैसे ही उसनें ये सुना कि मेरी बहन नें मुझ से बिना आज्ञा लिए विद्युत्जिव्हा से विवाह कर लिया है ........तभी रावण अपनी दिग्विजय यात्रा बीच में ही छोड़ कर आगया ....और अपनें चन्द्रहास नामक खड्ग से अपनी बहन को विधवा बना डाला ............वो रोई ...........अन्न जल का त्याग करके बैठ गयी ।
रावण अपनी बहन से प्रेम करता था ............सूर्पनखा उसकी लाड़ली बहन थी ...............हे सीते पुत्री ! सूर्पनखा को प्रसन्न करनें के लिये स्वयं को दहेज में मिला ये दण्डकारण्य क्षेत्र उसे दे दिया ।
दण्डकारण्य की तुम साम्राज्ञी हो मेरी बहना !
ये कहते हुये अपनी बहन को प्रसन्न करके का प्रयत्न रावण नें किया था ......और सफल भी रहा ...............इतना ही नही अपनें मामा के पुत्र खर, दूषण त्रिसरा इन सबको और हजारों की राक्षसी सेना भी सूर्पनखा को दे दी ........और कहा .....तुम यहीं रहो ...........और स्वतन्त्र अपना राज्य चलाओ ...........रावण की बहन है सूर्पनखा और वो यहीं घूमती रहती है ..........बेटी ! उससे सावधान रहना ।
जटायू जी नें मुझे ये सब बताया था ...........................
शेष चरित्र कल .......
Harisharan
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