वैदेही की आत्मकथा - भाग 80

आज के विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 80 )

निशिचर हीन करहुँ मही..
( रामचरितमानस )

**कल से आगे का चरित्र .........

मैं वैदेही ! 

"निशाचरों से रहित कर दूँगा पृथ्वी"

दोनों  आजानु भुजाओं  को उठाकर मेरे श्रीराम नें  प्रतिज्ञा कर ली थी ।

तब उनके नेत्र सजल थे .............ऋषियों की ऐसी स्थिति  !

मैं भी बिलख उठी थी ..........ऋषि , मुनि, तपश्वी   सब  अत्यन्त दुःखी थे .................दुःखी  थे  ? 

सुनिए ....................

ऋषि शरभंग की चिता में प्रणाम करके हम  आगे बढ़ गए थे ..........

पर मेरे श्रीराम  कुछ ज्यादा ही गम्भीर होते जा रहे थे अब .......मैने अनुभव किया था   ।

हाँ     वातावरण  कुछ   बैचेनी पैदा करनें वाला  अवश्य  था ।

तभी सामनें  ........ऋषियों  का  समूह आता हुआ दिखाई दिया .........समूह  अलग अलग थे ............उनकी संख्या कुछेक सौ मैं थी ।

'हे  राम !  हमारी  ऋषि परम्परा को बचा लो"...............सबनें एक साथ हाथ जोड़कर  प्रार्थना की थी ..............।

पर क्या हुआ  ?       क्या हुआ पूज्य ऋषियों  !    क्या हुआ  !

मेरे श्रीराम दौड़ पड़े थे  ............और  उन वृद्ध ऋषियों के  चरणों में झुक गए थे ..............आज्ञा करें  आप  !        ।

आप चलें  हे राम!  ..........और   देखते  चलें ..........हम आपके साथ  ऋषि  सुतीक्षण  जी के आश्रम तक जायेंगें  ।

ऋषि  डरे हुए  थे ....................................

पर  डरना स्वभाविक था ...................ओह !    .क्या दृश्य  ।

हजारों हजार ऋषियों के देह का ढाँचा...........अस्थियों का   ढ़ेर .........ये क्या है !    मैं चीत्कार उठी .......क्यों की हमारे सामनें ही   एक ऋषि का सिर    मार्ग में पड़ा था  और  दूर  उसका  धड़ था...............

ऐसे अनगिनत  हृदय  विदारक दृश्य हमें दिखाई दिए थे ......।

ये मार्ग लाल क्यों है  ?   

लक्ष्मण नें  चौंक कर  एक ऋषि से पूछा था  ।

रक्त से   कुमार लक्ष्मण !   ऋषियों के रक्त से ................

लाल नेत्र हो गए थे उस समय कुमार लक्ष्मण के ...............

आप लोग वध  क्यों नही करते इन राक्षसों का  ?........आपके पास तप का बल  है ..........उससे तो  आप  जो चाहे कर सकते हैं .............।

क्रोध करनें  से साधना खतम हो जाती है लक्ष्मण ! 

गम्भीर स्वर में  बोले थे मेरे श्रीराम   ।

और ये ऋषि  देह त्यागना स्वीकार करेंगें .........पर  साधना का  फल  इन राक्षसों को मारने में   क्यों नष्ट करें.......?

आप सत्य संकल्प राम हैं ..........यही सत्य  है -  ऋषियों नें कहा ।

ओह !     चलते चलते  मार्ग में ......एक भयानक दृश्य नें  हम सबको स्तब्ध कर दिया था ..........    इस बार  मेरे श्रीराम के  स्वर में  करुणा का  सिन्धु उमड़ पड़ा था ऋषियों के लिए............नेत्र अत्यंत अरुण हो गए   थे ...................

ये सामनें  सफेद पर्वत क्या हैं   !  

मेरे श्रीराम नें     ऋषियों से पूछा  ।

ये  हम  ऋषियों  की हड्डियों के पर्वत हैं.......................

लक्ष से भी ज्यादा    ऋषियों को आहार बना चुके हैं  ये  राक्षस .......और ये उनके हैं  अस्थि  ।

हमारे रक्त ले जाते हैं ये ...................हमसे कहते हैं ......यही है  तुम लोगों का   राजा को  "कर" देना ..........................

नेत्रों में उबाल आगया था ......मेरे श्रीराम के ........ये सब सुनके ।

दोनों भुजाओं को     उठाया .................आकाश की और देखा .........

और        "मैं  निशाचरों से रहित कर दूँगा पृथ्वी "

प्रतीज्ञा कर ली .......................मेरे  श्रीराम नें  ।

तभी  आकाश से फूल बरसनें लगे  थे  .................

ऋषियों ने ............."सत्यसंकल्प  श्रीरामचन्द्र  की जय" ....

सब बहुत देर  तक जयजयकार लगाते रहे ..............।

शेष चरित्र कल ..........

Harisharan

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