आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 79 )
धन्य धन्य शरभंग ......
( रामचरितमानस )
***कल से आगे का चरित्र -
मैं वैदेही !
धन्य धन्य ऋषि शरभंग...........मैं तो यही कहूँगी ।
आहा ! क्या मृत्यु है..........सच मृत्यु भी धन्य होगयी .......पर मृत्यु कहाँ ........यह तो अमृत पा लिया था ऋषि शरभंग नें ।
हम तीनों .......श्रीराम लक्ष्मण और मैं ..........हम चल रहे थे ......घनघोर वन प्रदेश हमें मिलते जा रहे थे ......मेरे श्रीराम सावधान थे ........वो लक्ष्मण को भी सावधान रहनें को कहते ......।
दूर तक चलनें के बाद .......एक सरोवर आया था .......................
हाँ ......ये स्थान सुन्दर है .......लक्ष्मण ! जानते हो यहाँ के जीव जन्तु सब कितनें आनन्द से विचर रहे हैं ...........क्यों की ये निर्भय हैं .......।
ये कहते हुए उस सरोवर में मेरे श्रीराम नें अपनें हस्त और चरण पखारे ..........वैदेही ! तुम भी हाथ पाँव धोलो .................बड़े प्रेम से कहा मुझे ............ये दक्षिण प्रदेश कुछ उष्ण है ..................इसलिये शीतल जल से .............अपनें मुखारविन्द को भी धो लिया था ये कहते हुये मेरे श्रीराम नें ।
मैं आगे बढ़ी ........................जल से आचमन किया ही था की ....आकाश से कोई अत्यंत सुन्दर शुभ्र हाथी ............उसमें विराजे थे देवराज इन्द्र .......................
मेरे श्रीराम चकित होकर देख रहे थे आकाश की ओर ...........
जाओ ! जाओ देवराज ! मैं अभी नही जाऊँगा ...........कैसी बात करते हो ...........मेरे द्वार पर सीता राम आरहे हैं .........और मैं तुम्हारे साथ ब्रह्म लोक जाऊँ ..............कह दो पूज्य ब्रह्मा जी को .......बस मैं उन्हें देख लूँ .............देख लूँ ।
मैने देखा .................देवराज सिर झुका कर चले गए .............उनका वो हाथी ............विशाल हाथी ....पूरे आसमान में ही छा गया था ।
तभी सामनें से वो ऋषि दिखाई दिए .......शरभंग ..........अत्यंत कृशकाय ..........अस्थियों में माँस नही था .....कहाँ से हो ..........अन्न का त्याग किये हुये कितना समय हो गया ......शायद ये इन ऋषि को भी पता नही ....................।
पर ज्योति पुञ्ज ..................दिव्य तेज़ था उनमें ।
मेरे श्रीराम धनुष को रखकर साष्टांग प्रणत हुये थे .............लक्ष्मण नें बाद में किया ........मैने हाथ जोड़कर प्रणाम किया था ।
हे राम ! मेरे श्रीराम .............फिर मेरी और देखते हुये बोले .......सीताराम ! हाँ ये मेरा श्री राम कुछ अधूरा था ..................बिना इस "सीता" नाम के .................मुझे प्रणाम किया .......मैने सिर झुका लिया था ....... ऋषि अद्भुत थे ...........।
फिर अपनी कुटिया में ले आये ...........पास में ही थी कुटिया पर स्वयं तपश्चर्या में रहनें के कारण फलाहार भी त्याग दिया था ऋषि शरभंग नें ।
इसके ही कारण वहाँ फल के वृक्ष भी नही थे ।
पर जल से अर्घ्य दिया अतिथि के रूप में हमें ...................
हे सीता राम ! ये देवराज इन्द्र थे जो मुझे लेनें आये थे ब्रह्म लोक के लिये ...................ब्रह्मा जी नें भेजा था इन्हें .......पर मैने भी कह दिया स्वयं सीताराम मेरे द्वार से होकर गुजरें और अभी ही जुगर रहे हैं .........फिर मैं कैसे जा सकता हूँ ...............आप जाएँ मैं बस इष्ट के दर्शन करके ........आजाऊंगा ।
हे राम ! आप देख ही रहे हो मेरा शरीर कितना जर्जर हो रहा है ........समय भी हो गया है इस देह का ....................इसलिये मै आज जल हाथ में लेकर ........अपना सम्पूर्ण जप ,तप साधना व्रत आपके चरणों में समर्पित करता हूँ .....................आप इन्हें स्वीकार करें ।
ये कहते हुए ऋषि शरभंग नें .............हाथ में लिया जल और मेरे श्रीराम के चरणों में डाल दिया ...................।
हे राम ! फिर ऊँची साँस लेते हुए ऋषि नें कहा ..............
मेरा देह से कोई मोह नही है ..............वैसे भी देह से मोह मुझे कभी था भी नही .................हे राम ! अब मैं अपना देह त्यागना चाहता हूँ ।
आपको ये अच्छा नही लगेगा .................पर हे राम ! आपकी प्रेमपूर्ण दृष्टि के सामनें ......आपको देखते हुए ये ऋषि अपनें प्राणों को त्यागेगा ......आपको मात्र साक्षी बनना है ।
हम तीनों ही शान्त भाव से खड़े रहे ............क्या बोलते .................
ऋषि नें इधर उधर से कुछ काष्ठ बटोरनें शुरू कर दिए थे ......लक्ष्मण नें आगे बढ़कर सहायता करनी चाही ......पर वो क्षत्रिय कुमार से क्यों सहायता लेनें लगे थे ...........स्पष्ट मना किया .....लक्ष्मण को उनकी बात सही भी लगी ........
काष्ठ बटोरकर ...........उसके ऊपर कुशा बिछाकर पद्मासन में बैठ गए थे ऋषि शरभंग ............ओह ! उन्होंने त्राटक शुरू किया .......हमें देखना शुरू किया ...............हल्की मुस्कुराहट ..........जो शान्त होती जा आरही थी ..............सीताराम ! सीताराम !
ये ध्वनि निकल रही थी ...............पर वो भी बन्द हो गयी .............शान्त भाव से त्राटक ............मेरे श्रीराम के मुख मण्डल का ...
पर पता नही .......कब वो ज्योति पुञ्ज बन गए .......प्रकाश ........तीव्र प्रकाश ................ओह ......अग्नि की एक चिंगारी निकली ..................अग्नि पूर्ण प्रज्वलित हो गयी थी ......पर ऐसी अग्नि ......जिसमें धुँआ नही था ......सुगन्धित अग्नि ........और वह अग्नि लौ की तरह उठी थी ............वह अग्नि काँप भी नही रही थी ......ऋषि शरभंग के देह से उठी अग्नि कुशा में फिर काष्ठ में लग गयी थी .......................ओह ! पूरा वन प्रदेश सुगन्धित हो उठा था ...........।
पर ये क्या अग्नि जैसे ही शान्त हुयी ..........उसमें से एक अत्यंत सुन्दर कुमार .......हाथ जोड़ते हुये आकाश की और बढ़ा ......उसनें आकाश में जाकर हम तीनों की परिक्रमा की .........और तीव्रता से उड़ चला ................इतनी तीव्रता थी .....जैसे विद्युत ..........और .वो विद्युत अंतरिक्ष में विलीन हो गयी थी ।
मेरे श्रीराम सहित हम नें उनकी उस चिता को प्रणाम किया .............नेत्रों से अश्रु बह चले थे मेरे श्रीराम के ।
धन्य धन्य ऋषि शरभंग .......मेरे श्रीराम भी यही कह रहे थे ।
शेष चरित्र कल .......
Harisharan
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