आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 78 )
करि विराध वध....
( रामचरितमानस )
आगे का चरित्र -
मैं वैदेही !
प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर हम लोग ऋषि अत्रि के सन्मुख उपस्थित थे ......उनके साथ जगत वन्दनीया माँ अनुसुइया भी थीं ।
मुझे हृदय से लगाकर आनन्दित हुयी थीं वो वत्सल्यमयी ........
ऋषि अत्रि नें मेरे श्रीराम को आशीर्वाद भी दिया ...........और प्रणाम भी किया था ।
हे राम ! आगे मत जाओ ..........आगे राक्षसों का समूह है ...........वो बड़े भयानक है ............मेरी प्रार्थना है आगे मत जाओ ।
ऋषि अत्रि नें मेरे श्रीराम से निवेदन किया था ।
भगवन् ! आप ऐसी बात न करें ...............इन ऋषियों के मुख मण्डल में भय है ...............ये हम क्षत्रियों के लिये दुर्भाग्यपूर्ण है ।
हे ऋषि अत्रि ! आप ऋषि मुनि इस धरा को बचाये हुए हैं ........अन्यथा ये धरा तो कब की राक्षसों के कारण रसातल में ही चली जाती ..........फिर कैसे हम आप लोगों की साधना को निर्विघ्नता से न होनें दें .............आप को हम निश्चिन्तता प्रदान करेंगें ...........ये राम का वचन है ..........ये बात बड़ी दृढ़ता से बोले थे मेरे श्रीराम ।
आप का मंगल हो ........आप अपनें कार्य में सफल हों .......आपका संकल्प सिद्ध हो ............यही आशीर्वाद दिया था ऋषि अत्रि नें ......और हम लोग सबको प्रणाम करके आगे के लिये चल पड़े थे ।
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ओह ! वो घनघोर जंगल ......................एक सरोवर था .....जल स्वच्छ और निर्मल था .............पर कोई पक्षी नही थे .........मै सोच रही थी ..........तभी मेरे श्रीराम नें लक्ष्मण से कहा ........लक्ष्मण !
शीघ्र धनुष बाण को सम्भालो ................मेरे श्रीराम धनुष में बाण लगाकर सावधानी पूर्वक चल रहे थे .........भय व्याप्त था उस घनघोर जंगल में ...............मै बीच में चल रही थी ...........आगे मेरे श्रीराम धनुष बाण को सम्भाले हुये ......और पीछे लक्ष्मण .........।
तभी एकाएक आँधी चली ................अन्धड़ आगे कुछ दिखाई नही दे रहा था..........
एक गर्जना हुयी ......अट्हास किया किसी नें ..............वो अट्टहास इतनी भयानक थी कि मैने तो अपनें कान ही बन्द कर लिए ।
बाण धनुष में लगाये रखो लक्ष्मण ! मेरे श्रीराम बोले जा रहे थे ।
तभी -
ओह ! वो विशाल काय ! मै डर गयी ................
मेरी चीख निकल गयी थी .............................
मै राम हूँ .......दशरथ नन्दन राम .............ये मेरी भार्या हैं वैदेही .....और ये मेरे अनुज लक्ष्मण ..........तुम कौन हो ?
श्रीराम नें मर्यादा का ध्यान रखते हुये ......अपना परिचय दिया उस राक्षस को .......फिर उससे उसका परिचय माँगा ।
मैं विराध ............मै राक्षसों का राजा हूँ ..............रावण मेरे सामनें आनें से भी डरता है ..............पर तुम कितनें सुन्दर हो राम !
वो विराध तो मेरे श्रीराम को हक्का बक्का सा देखता ही रहा ।
ओह ! ऐसी सुन्दरता तो मैने कहीं देखी ही नही थी .............
ये सांवला रँग ...........वो छूनें लगा था मेरे श्रीराम को ..........
ये चरण .............कितनें कोमल हैं ................इन कंटीले मार्गों पर चल रहे हो..........काँटें गढ़ रहे होंगें राम ! वो भावुक हो उठा था ।
तुम क्यों भय उत्पन्न करते हो इन निर्दोष ऋषियों के मन में ........मत करो इनको परेशान........मेरे श्रीराम नें उस विराध को समझाना चाहा ।
इन चरणों से मुझे मार दो ना मेरे राम ! उस विराध नें झुक कर मेरे श्रीराम के चरण पकड़ लिए थे ..............पर ये क्या ! मैं चीखी .......क्यों की उसनें मेरे श्रीराम के चरण पकड़ कर पछाड़नें का प्रयास किया था । पर मेरे श्रीराम उछल कर फिर सीधे खड़े हो गए ।
वो हँसा ...................मेरी ओर देखा .................उसकी दृष्टि इतनी भयानक थी कि मैं मूर्छित ही हो गयी ................तब मेरे श्रीराम को क्रोध आया ................
बाण छोड़ दिए ............दोनों हाथ कट गए और गिर गए विराध के ।
वो फिर हँसा .........हाँ कर दो मेरा वध ......कर दो मेरा उद्धार है राम !
मेरे श्रीराम नें दो बाण और चलाये ........विराध के पैरों में वो बाण लगे ......कट कर गिर गए थे उसके पैर ...........
वो फिर हँसा .....................जय हो राम ! जय हो !
मेरे श्रीराम उछलते हुये विराध के सिर में अपनें चरण रख दिए थे .....
वो आनन्दित हो रहा था .............इन चरणों को ब्रह्मादि इन्द्रादि चाहते हैं फिर भी उनको ये चरण नही मिल पाते ............आज मेरे जैसे राक्षस नीच को ये चरण मिले हैं ......मैं धन्य हो गया राम !
ये कहते हुये .........विराध नें मूर्छित हो गया था .......पर गाड़ना पड़ेगा इसे ..............लक्ष्मण ! इसमें अभी भी प्राण हैं .............इसे धरती में गाड़ दो ..............गड्डा खोदा लक्ष्मण नें ..........उसमें विराध के देह को गाड़ दिया था ।
आकाश से तभी पुष्प वृष्टि होनें लगी .....................
वो अत्यंत सुन्दर हो गया था विराध ........मैं गन्धर्व हूँ .....ऋषि दुर्वासा के शाप से राक्षस बना ........पर मेरे लिए ऋषि का श्राप श्राप नही ........वरदान सिद्ध हुआ नाथ ! आपके चरणों को मैने प्राप्त किया मै धन्य हो गया ......मैं धन्य हो गया ।
ये कहते हुये वो चला गया .......मुक्त होकर ।
मै अभी भी डरी हुयी थी .............मेरी साँसे अभी भी तेजी से चल रही थीं .......कितना भयानक था वो राक्षस ! मैने अपनें श्रीराम के मुख की और देखते हुये पूछा .............वो बस मुस्कुरा रहे थे .........अभी आगे आगे देखती जाओ वैदेही ! इतना ही बोले ।
शेष चरित्र कल ...........
HarisharanP
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