आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 61 )
जनम जनम रति राम पद...
( रामचरितमानस )
**कल से आगे का चरित्र -
मैं वैदेही !
लक्ष्मण भी भीतर कुटी में आगये थे .......प्रभो ! आप रो क्यों रहे हैं ?
और भाभी माँ ! आप भी रो रही हैं , क्यों ?
लक्ष्मण ! रात्रि में तुम्हारी भाभी माँ नें सपना देखा..................
सपना देखकर भी कोई इतना गम्भीर होता है ? सरलता में लिया था लक्ष्मण नें स्वप्न को ।
लक्ष्मण ! स्वप्न मध्य रात्रि का नही........सुबह का है .......
मेरे श्रीराम लक्ष्मण को समझाते हुये बोले थे ।
चाहे सुबह का हो स्वप्न या रात्रि का .............क्या फ़र्क पड़ता है.......है तो स्वप्न ही .....यानि मिथ्या ।
लक्ष्मण को इन बातों में कोई विशेष रूचि नही है .........।
अच्छा ! सुनो लक्ष्मण ! तुम्हारी भाभी माँ अपना सपना सुना रही हैं ।
लक्ष्मण इधर उधर देखनें लगे थे .....मानों उन्हें कोई रूचि नही थी ।
"भरत भैया नें अयोध्या की उस सभा में सबको कहा......आप लोग अगर मेरा साथ दें ......तो हम सब चित्रकूट चलते हैं......मेरे श्रीराम वहीँ हैं .....उनको सब प्रार्थना करके अयोध्या ले आएंगें ।
मैने सपनें में देखा नाथ ! कि भरत भैया अयोध्या की प्रजा को समझा रहे हैं .......और प्रजा खुश हो गयी है..... सैकड़ों रथ , सैकड़ों हाथी सैकड़ों घोड़े .....पैदल वाले भी सब चल पड़े थे चित्रकूट की ओर ।
मेरे सपनें को सुनकर आगे बढ़कर लक्ष्मण नें मृत्तिका के पात्र से जल लिया और पी गए..........।
लोभी है वो कैकेई नन्दन भरत !
लक्ष्मण नें जल पीनें के उपरान्त कहा ।
नही लक्ष्मण भैया ! मैने जो सपना देखा उसमें तो भरत जैसा त्यागी आर्यावर्त के इतिहास में कोई दूसरा नही होगा ।
मैने फिर अपनें श्रीराम के मुखारविन्द की ओर देखते हुए कहा ......
भरत चले आरहे हैं..........निषाद राज भी भरत के साथ हो लिए ।
मैने देखा सपनें में प्रभु ! कि प्रयाग पहुँच कर ऋषि भरद्वाज के आश्रम में रुके भरत भैया ।
तब ( मैने लक्ष्मण की ओर देखते हुये कहा ) मैने सपनें में देखा कि भरद्वाज ऋषि नें अपना सम्पूर्ण तप भरत भैया की परीक्षा लेनें में लगा दिया ......परीक्षा इसलिये कि कहीं इस भरत में कैकेई जैसी लोभ की वृत्ति तो नही है .।.....आव्हान किया इंद्र का , आव्हान किया कुबेर का ..........इन देवों नें कहा......".आज्ञा कीजिये ऋषि"
अमरावती का वैभव भरत के सामनें आज की रात्रि प्रस्तुत किया जाए ।
जो आज्ञा ऋषि ! हम पूरी शक्ति से प्रयत्न करेंगें .....देवराज इंद्र नें कहा और अंतर्ध्यान हो गए थे ।
मै लक्ष्मण की ओर ही देखते हुये ये बातें कह रही थी ....क्यों की भरत भैया को लोभी इन्होंनें ही कहा था ।
लक्ष्मण भैया ! सपना था मेरा, पर मैने देखा भरत भैया के सामनें उस रात्रि स्वर्ग की सभी सिद्धियाँ उपस्थित थीं ।
स्वर्ग का समस्त वैभव वहाँ उपस्थित हो गया था ...........
स्वर्ग की सभी अप्सरायें नृत्य करनें के लिये वहाँ प्रस्तुत थीं ।
और इन सबनें अपनी ताकत लगा दी...........पूरी ताकत ।
नाचती रहीं अप्सरायें ...........ऐसी ऐसी अप्सरायें थीं कि जिनके शरीर से कमल फूल की सुगन्ध आती थी.......सिद्धियाँ ऐसी कि जो कामना हो .......तत्क्षण पूरी ।
पर एक तरफ स्वर्ग का सम्पूर्ण सुख, वैभव था तो दूसरी और भरत भैया ......."राम राम राम राम" ....जपते हुए भरत भैया !
लक्ष्मण भैया ! आपनें कहा ना अभी कि - भरत लोभी है ...........नही लक्ष्मण भैया ! वो लोभी नही हैं ........अगर लोभी होते तो स्वर्ग की सम्पदा उन्हें अवश्य आकर्षित करती .......पर नही ।
ऋषि भरद्वाज नें देखना चाहा ........कि भरत के मन में लोभ है या नही !
पर जैसे ही अपनी कुटिया के भीतर दृष्टि डाली ..........भरत के नेत्रों से अश्रु बह रहे हैं ........माँ ! बोलो ना ! मेरे श्रीराम मुझे मिलेंगें ना ?
अप्सरा के चरणों को छूते हुये बोल रहे थे भरत भैया ।
मेरे मुख से ये सब बातें सुनकर फिर नयन बह गए मेरे श्रीराम के ।
हे माताओं ! मुझे कुछ नही चाहिये ........न ऋद्धि , न सिद्धि, न अर्थ, न काम ......कुछ नही चाहिये मुझे ........मुझे मेरे केवल राम चाहियें ......मुझे केवल मेरे राम.............रो रहे थे उर्वशी , मेनका, तिलोत्तमा को हाथ जोड़ते हुये भरत भैया ......।
हे देवियों ! मुझे देना है तो इतना ही दो कि मेरे राम मुझ पर प्रसन्न हों .............मुझे मेरे राम क्षमा कर दें ............।
हे नाथ ! भरत भैया रो रहे थे.......मैने अब प्रभु की ओर देखते हुए कहा......पर सपना बड़ा विचित्र था.....उन सभी अप्सराओं नें भरत भैया की चरण रज अपनें माथे से लगाई.....और यही कहती हुयी चली गयीं कि ये राम प्रेम तो आपसे ही हमें मिल सकता है......हम तो विषय भोग में लिप्त रहनें वालीं तुच्छ अप्सरा आपको कुछ नही दे सकतीं ।
अप्सरायें चली गयीं ...........
ऋषि भरद्वाज बाहर खड़े हैं .........भरत भैया की स्थिति देखकर वो भी रो रहे हैं .......धन्य भरत ! धन्य भरत !
उनके मुँह से बारम्बार यही निकल रहा है ।
आगे की बात मै बतानें जा आरही थी ..............कि मुझे रोक दिया मेरे श्रीराम नें ..........।
लक्ष्मण ! तुम्हारा स्नान हो गया ?
जी ! स्नान हो गया....अब सन्ध्या करनें बैठ रहा हूँ ...लक्ष्मण नें कहा ।
ठीक है ब्रह्ममुहूर्त का समय हो गया है .............हम जा रहे हैं मन्दाकिनी स्नान करनें के लिये .............तुम यहीं रहना ।
श्रीराम और मैं, हम दोनों होकर मन्दाकिनी में स्नान के लिये चल दिए थे ।
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स्नान करके सन्ध्या किया श्रीराम नें ...............मैने उनके चरणों की वन्दना की ....और चरणोंदक पान किया ।
कामदगिरि में बैठे हैं हम दोनों ................
लक्ष्मण वहीं पास में ही हैं .......और बाणों को बना रहे हैं ।
जब से मैने सपना सुनाया है तब से श्रीराम गम्भीर हो गए हैं .......कुछ बोले भी नही हैं.......नेत्र सजल हैं .....।
तभी -
हे भगवन् ! आपके भैया भरत जी सेना लेकर आरहे हैं .........हजारों की सेना है ........शायद लाखों की भी हो सकती है ।
सिर झुकाकर एक भील नें सूचना दी .........।
लक्ष्मण हँसे .............लो देख लो ! आगया कैकेई नन्दन ।
अरे ! कैकेई का पुत्र है ................लोभी तो होगा ही ...........
भाभी माँ नें अपना सपना सुना दिया तो आप भावुक हो उठे प्रभु !
पर कैकेई की कोख से जाया भरत कैसे लोभ रहित हो सकता है ?
लक्ष्मण बोले जा रहे थे ..............।
अब देख लिया आपनें ..........आगया ना अपनें असली रूप में ?
सेना लाया है ..अपनें साथ.....क्यों की वो आपको मारना चाहता है ...वो भरत आपको मारकर अयोध्या का अचल राज्य पाना चाहता है ।
पर .............लाल चेहरा हो गया था लक्ष्मण का ।
पर ........उस कैकेई के पुत्र को पता नही है ..........आपकी सेवा में लक्ष्मण है ......आगे बढ़नें नही दूँगा मै उस भरत को ।
इतना कहकर तेज़ी से बाणों के सन्धान में लग गए थे लक्ष्मण ।
शेष चरित्र कल .............
Harisharan
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