वैदेही की आत्मकथा - भाग 54

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 54 )

रामहिं केवल प्रेम पियारा .....
( रामचरितमानस )

***कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही ! 

सचमुच  हमारे मन्दाकिनी गंगा  से  स्नान करके लौटनें तक ही में,  पर्णकुटी  बनाकर तैयार कर दी थी इन  भील युवकों  नें ।

दो विशेष कुटी तैयार कर दी........एक छोटी  थी .....और एक बड़ी ।

मै ही निरीक्षण कर रही थी ।

....देवी !  अब आप आज्ञा करें - हमारे युवक  तुलसी और फूलों के लिये  गड्ढे बना देंगे.....निषाद राज नें हाथ बांध कर मुझ  से कहा था  ।

नही मित्र !  आज नही ............आज  इन युवकों नें बहुत श्रम कर लिया है .........इसलिये  अब   जो भी कार्य होगा  वो कल  ।

पर हम थके नही हैं .......भीलों के युवको नें   सिर झुकाकर कहा ।

मै जानता हूँ ...............तुम लोग  हमारी बहुत सेवा कर रहे हो  ! 

श्रीराम नें इतना ही कहा था ..........कि  एक  भील युवक बोल पड़ा .......हमनें कहाँ सेवा की ?............हमनें आपको लूटा तो नही है .....हमारी सबसे बड़ी सेवा यही है कि  हमनें आपको लूटा नही !

इस बात को सुनकर  सब भील युवक हँस पड़े ............निषाद राज नें उस युवक के कान पकड़े ...........बदमाश हैं ये लोग ...........आप स्वतन्त्र हैं  नाथ !    ये कभी  ऐसी कोई बात कहें  तो आप दण्ड दे देना ।

उस युवक के कान पकड़े ही रखे थे निषाद राज नें  ।

मित्र !  छोडो उसके कान .......कष्ट हो रहा होगा  उसे ............

श्रीराम नें  उस युवक को अपनें पास बिठाया ................

 कोल किराँत भील  सब आगये थे वहाँ  ................

हे  मेरे  मित्रों !      मेरी एक बात  आज आप सबको माननी ही पड़ेगी ।

श्रीराम   सबको सम्बोधित करते हुए बोल रहे थे ।

आप आज्ञा दें ..........हम आपकी हर  बात मानेंगें  ।

आज के बाद  तुम लोग हिंसा नही करोगे ! 

नही करेंगें !  नही करेंगें  !        सब लोग बोले  ।

आज के बाद  तुम लोग किसी से झूठ नही बोलोगे !

हम बोलते ही नही हैं .......एक छोटे भील नें  आगे आकर कहा ........उसकी बात पर सब हँसे ..........।

किसी की चोरी नही करोगे !   

हम चोरी नही करते ............हम लूटते हैं   प्रभु !  

जो बात  थी    वो स्पष्ट कह दी  ।

आज के बाद लूटना बन्द !        श्रीराम नें  स्पष्ट आदेश दिया ।

ठीक है  आज के बाद लूटना बन्द !  

सब लोग बोले........अपनें अपनें भालों को उठा उठा कर  .....बोले ।

पर ........एक  छोटा सा  भील.....नाख़ून चबाता हुआ आगे आया ....

पर हम लोग  आपको लूटेंगें  !         

हट्ट !   क्या बोलता है ..............उसकी माँ नें आकर  बच्चे को एक थप्पड़ मार दिया  था ।

वो रोनें लगा ......मैने ही  उस  बच्चे को  अपनें हृदय से लगा लिया था ।

अब मेरे हृदय  से लगा वो बालक  अपनी माँ को ही चढानें लगा  ।

तुम ऐसा क्यों बोले  ?   तुम  "आर्य श्रीराम"  को लूटोगे  ? 

मैने   जब उस बालक से पूछा  तो  उसका उत्तर था ..........

हम  आप सब से लूटेंगें  !    आप लोग प्रेम का खजाना लाये हो .....हम आप से वो लूटेंगें ..........प्रभु श्रीराम से प्रेम लूटेंगे ......आपसे वात्सल्य लूटेंगे माँ  !      लक्ष्मण जी से स्नेह लूटेंगे ..............

मै चकित थी ...............मेरी गोद में बैठा वो भील का बालक ........जो बोल रहा था ....उसको सुनकर  श्रीराम भी  मुग्ध हो गए थे  ।

माँ !  स्वभाव नही जाता ना !   हमारा जन्मजात स्वभाव है....लूटना ....हाँ  पर  अब हम  औरों को क्यों लूटें  ?    अब तो हम आप लोगों को ही लूटेंगे ....जिनको लूट कर  फिर किसी को लूटनें की इच्छा ही न हो ।

प्रेम लूटेंगे आपसे.....स्नेह लूटेंगे......यही तो  सबसे बड़ा धन है ना माँ ! 

वो काला कलूटा  चिक्कन बालक  मेरी गोद में  कितनी आत्मीयता से बैठा था ..................।

धन्य हैं  हम लोग .........धन्य बना दिया हम लोगों को नाथ ! आपनें !

बड़े बड़े देवों को भी  ये  सौभाग्य नही मिला......जो हम लोगों को मिला.....हम लोगों को मिल रहा है" ......ये बात निषाद राज कह रहे थे ।

हमारे ये बालक !        

रो गए निषाद राज .............हे नाथ !  हे माँ !    इन बालकों को  कोई सभ्य मानव छूना पसन्द नही करता........पर माता सीता   हमारे इन बालकों  को  अपनी गोद में बिठा रही हैं.......।

हम लोग हिंसक हैं.......और  कोई  तथाकथित  मनुष्य  हमें परेशान करता है .......तो हम उसे भी मार देते हैं ......ऐसे तो हम हैं  ।

हम लोग मांसाहारी है ............कन्द मूल फल हमारे यहाँ पर्याप्त है ......पर  हम लोग माँस भी खा लेते हैं ..............

ऐसे  लोगों पर आप की  कृपा आज बरस रही है !   ओह !  

हम तो सुनते थे  कि  आप उन्हीं पर कृपा करते हो ....जो अहिंसक हो ! 

पर  यहाँ तो सब उल्टा हो रहा है ...............नाथ !    आप  ये सब  नही देखते .........मैं आज समझ गया हूँ ..........आप मात्र प्रेम देखते हो ......और कुछ नही देखते .........केवल प्रेम  !

पर   हमारे में प्रेम भी कहाँ है  !       हम क्या जानें प्रेम क्या है ?

निषाद राज  चरणों में गिर गए थे  श्रीराम के,     रोते रोते ........।

तब  मेरे श्रीराम नें  उठाया निषाद राज को ................और बड़े प्रेम से कहा ..............आप लोगों में प्रेम है ..........और मैं तो इसी प्रेम के मोल ही  बिकता हूँ ..........आप जानते हैं निषाद राज  ।

तभी कन्द मूल फल भीलनियाँ ,अपने टोकरे में भर भर कर ले आयीं थीं ।

अब  आप लोग कुछ खा लें ............बहुत भूखे होंगें  ।

आहा ! कितना प्रेम है इन लोगों में ..............मै इन सब को देख देख कर गदगद् हुयी जा रही थी  ।

मै उठी ..............कुछ कन्द मैने,  अग्नि जलाकर,   उसमें डाल दिए ।

कुछ बन्दर   अपनें हाथों में  मधु का छत्ता ही उखाड़ लाये थे ...और बड़े प्रेम से  उन छत्तों को  मेरे हाथों में दिया था  ।

कन्द को  मधु( शहद ) के साथ खानें में बहुत स्वादिष्ट लगता है माँ  ! 

एक बालक नें कहा  ।

मैने  केले के पत्तो में ..........पहले श्रीराम को ............लक्ष्मण ..........निषाद राज ...........मना कर रहे थे....पर  श्रीराम नें आग्रह करके उन्हें भी खानें को दिया  ।

छोटे छोटे बच्चे भीलों के ........मैने उन सब को भी दिया ..........बड़े खुश हो कर उन लोगों नें खाया .........भीलों के युवकों को ...........सबको मैने खिलाया था ......बुजुर्ग .......वो तो श्रीराम के साथ ही खा लिए थे  ।

बन्दर, हिरण,  हाथी ,   पक्षियों को भी मै कैसे भूल जाती ......ये लोग भी तो मेरा परिवार ही  थे   ..........इन सबको भी मैने  खिलाया  ।

ये क्रम  अब नित्य का था ...........नित्य  इतनें ही लोग  हमारी पर्णकुटी में  आकर  भोजन स्वीकार करते थे  ।

कुछ दिनों बाद  तो  ऋषियों नें भी आना प्रारम्भ कर दिया था ।

मै स्वयं ही  रसोई बनाती..........केले  के गुच्छा  ये हाथी    तोड़ तोड़ कर ले आते थे ...........नए नए फल .......फूल ...........कन्द .......कन्दों में भी  कई प्रकार थे.............मै  बड़े प्रेम से बनाती .......और  प्रभु श्रीराम को  खिलाते हुए.....सब को  भोजन कराकर ही भेजती थी  ।

मुझे बहुत अच्छा लग रहा था यहाँ ........................

ये है हमारा राज भवन  !   

जब जब  कुटिया में प्रवेश करते ........मेरे स्वामी श्रीराम .....तब तब मुझे रसोई में कार्य करते हुए  देखते ....और यही कहते ....ये है हमारा राजभवन  ।

हाँ .....पर आपका "राजकोष" छोटा हो रहा है.......प्रजायें  इतनी भेंटें लेकर आनें लगीं हैं .......कि उन सबको कहाँ रखा जाए ......बताइये !

मै हँसते हुये कहती  ।

कहाँ छोटा है  हमारा राजकोष ?  

जब रसोई में प्रवेश करते  श्रीराम .......तब  वो   हँसनें लगते .......अरे !  यहाँ तो फल फूल कन्द मूल  इन सबसे भर गया है .............

मै अपनें स्वामी का हाथ पकड़ कर बाहर दिखाती ......और  ये आपकी प्रजा   जो  भेंटें लेकर द्वार पर खड़ी हैं ......इनका भेंट कहाँ रखेंगें ?

श्रीराम बाहर जब देखते ..........कई हाथी .......जो केले के  गुच्छे तोड़ लाये थे .......उनको  लेनें की प्रार्थना कर रहे थे  मुझ से  ।

मैं कहाँ रखूँ  इन सब फलों को .................?

आपका राजकोष तो भर गया है ..............ये कहते हुये   मै अपनी बाहें  श्रीराम के गले में डाल देती .........लक्ष्मण नही होते थे उस समय ....।

ये सब देखकर हाथी  आनन्दित हो उठते .........मधु के छत्ते लिए खड़े  बन्दर  तालियाँ बजाते ......पक्षी  कलरव करनें लगते ............

श्रीराम मेरी और देखते ...........मेरी ठोढ़ी में हाथ लगाते .....

मै ......"लक्ष्मण भैया आगये"      ये कहते हुए भीतर भाग जाती थी  ।

पूरा वन ही  प्रेमविलास में डूब जाता था  ।

शेष चरित्र कल .......

Harisharan

Post a Comment

0 Comments