आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 53 )
चित्रकूट रघुनन्दन छाये ...
( रामचरितमानस )
***कल से आगे का चरित्र -
मैं वैदेही !
हम लोग जैसे जैसे आगे बढ़ रहे थे वन और सघन होते जा रहे थे ।
नागरी सभ्यता छूटती जा रही थी .........वन के जँगली लोग !
जँगली लोगों को.. आप... मनुष्य भी ... सीधे मुँह नही कहेंगें , है ना ?
पर आपको पता है ............हम नगर के वासियों से ज्यादा पवित्र हृदय और छल हीन मन इनके पास ही होता है ।
हाँ थोडा रँग काला और केश रूखे लाल हैं तो क्या हुआ ?
वस्त्रों के रूप में वृक्षों की छाल पहनते हैं तो क्या हुआ ?
पर स्वभाव निर्मल ! बच्चों की तरह सहज सरल ।
हाँ उन वनवासी लोगों को हम नागरी लोगों की तरह सभ्यता के शिष्टाचार प्राप्त नही है तो क्या हुआ ? .........वो लोग अपनें भावों को छुपाना नही जानते ..............हम लोग छुपाते हैं .....दुराव करते हैं .....पर उन लोगों को न छुपाना आता है ....न दुराव करना ।
नित्य संघर्ष में जीना .....निरन्तर वन पशुओं और प्रकृति के साथ रहते हुये ......इन्हें भी संघर्षरत रहना, यहाँ के जीवन नें सिखा दिया था ।
इन भीलों के रूखे बिखरे केश, काला रँग, पुरुष कटि में किसी रज्जु के सहारे लँगोटी लगाये ........और स्त्रियां तन में मात्र एक साड़ी ......यही तो उनकी सज्जा थी ।
हाँ ये लोग श्रृंगार भी करते थे ........कौड़ियों के आभूषण ......और पक्षियों के पंख ..........लगा कर ये लोग भी इतराते थे ।
पर इनके स्वभाव में किसी भी प्रकार की कृत्रिमता नही थी .....यानि बनावटीपना ।
हम लोग चित्रकूट की और बढ़ रहे थे .............हमें मार्ग में अब यही भील किराँत लोग ही मिल रहे थे ............
किसी वृक्ष की लता पकड़ कर कोई भील हमारे सामनें एकाएक आगया था .....मै डर गयी थी ........... वह हँसता था .....फिर उसी लता को पकड़ कर वापस चला गया.......और अन्य महिलाओं को लाकर मुझे दिखानें लगा था ..........स्वयं और उसके पुरुष मित्र ........श्रीराम को निहारते रहे ..........अपलक नेत्रों से निहारते रहे ...........।
आगे आगे तो हमें फल फूल लिये भील और उनकी भीलनियाँ मिलनें लगीं ..............
ये देवता हैं ............हमारे वन में आये हैं ...........अब हम लोग धन्य हो गए .........धन्य हो गए ।
भीलों के बुजुर्ग आये थे ...........उनके साथ सैकड़ों भील थे ......वही सब को बता रहे थे ..........ये देवता हैं ..........ये देवी हैं ............इनकी सेवा करो ....हमारे मुखिया निषादराज नें हमें यही तो समझाया है !
ओह ! मै अब समझ गयी थी ......कि निषाद राज जी प्रयाग से ही हमें छोड़कर आगे क्यों आगये थे ..............उन्होंने ही इस जंगल में सब को हमारे आनें की सूचना दे दी थी ।
ये चक्रवर्ती दशरथ के पुत्र हैं ......राम !
बुजुर्ग भील अपनें तरुण भीलों को और उनकी पत्नियों को समझा रहे थे ।
पर ये जंगल में क्यों है ? ये इनकी पत्नी लगती हैं ....कितनी सुकुमार हैं ......ये क्यों आयीं हैं इस भयानक जंगल में ?
ये प्रश्न था .......भीलों की जो पत्नियां थीं .... उनका ।
वनवास दे दिया पिता दशरथ नें !
बुजुर्ग भील नें सजल नयन से कहा ।
हाय ! मुझे देखकर रोनें लगीं थीं बेचारी भीलनियाँ ।
कैसा कठोर हृदय होगा चक्रवर्ती का ...............इतनें कोमल पुत्र और पुत्रवधु को भी भला कोई जंगल में भेजता है ...........हाय ! हाय !
खुलकर रोनें लगीं थीं सभी भीलनियाँ .............उनका रुदन सुनकर भील लोग भी रोनें लगे थे ...........भीलों का रुदन सुनकर .......हिरण , खरगोश , पक्षी तोता मैना कोयल कौआ .........सब दौड़ पड़े थे ......ये सब भी आँसू बहानें लगे थे ............अरे ! इतना ही नही .........हम लोगों को तो ऐसा लगनें लगा था कि .......वन के वृक्ष भी रो रहे थे ।
आप लोग शान्त हो जाएँ........हम आप सब के साथ ही रहनें आये हैं .........क्या आपके साथ हमें रहनें का सौभाग्य मिलेगा ?
ये मधुर वाणी मेरे श्रीराम की थी ...............।
मन्त्रमुग्ध से सुन रहे थे सब लोग ।
हम यहीं रहना चाहते हैं ..............अगर आपकी आज्ञा हो तो !
मेरे श्रीराम नें सबका आदर करते हुये .........ये बात कही ।
"आप गलत कह रहे हैं ......आप गलत कह रहे हैं"
सब लोग अपनें अपनें भाले उठाकर चिल्लानें लगे थे ।
मै चौंक गयी थी ......मेरे श्रीराम भी ........लक्ष्मण भी स्तब्ध से थे ।
क्या गलत कहा हमनें ?
क्या आप नही चाहते की हम यहाँ रहें ?
नही ......हे राम ! आपका यहाँ रहना हमारे लिये सौभाग्य की बात है ..आपके लिये नही....आपनें अभी कहा ....."हमारा सौभाग्य होगा" ........ये आप गलत कह रहे हैं ............आपका सौभाग्य नही .....हम सभी भीलों का सौभाग्य होगा ......इस वन का सौभाग्य होगा ...इस धरती का सौभाग्य होगा .................ये कहते हुए भाव में भर गए थे समस्त भील .......।
आप चित्रकूट में ही हैं .............हे राम ! आपको जो स्थान प्रिय लगे ......जो स्थान रुचे .......आप उसे बता दें .........हमारे तरुण युवक तैयार हैं .........आपके लिए वहीं घड़ी दो घड़ी में ही पर्णकुटी बनाकर तैयार कर देंगें ।
इतना सुनते ही .........सैकड़ों युवक भील .......हाथों में कुल्हाड़ियाँ लेकर आगे आगे चल पड़े थे .........उनसे आगे ...हिरण उछलते हुए जा रहे थे ......खरगोस और गिलहरी पेड़ों में चढ़ गए थे .....और ये भी पेड़ों से पेड़ में चल चल कर आगे पहुंचनें की होड़ लगा रहे थे .......।
हम लोग चलते चलते मन्दाकिनी गंगा के किनारे पहुँच गए ।
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सीते ! यही है मन्दाकिनी गंगा ....... ऋषि अत्रि की पत्नी माँ अनुसुइया के तप के प्रताप से ही सुरसरी मन्दाकिनी बनी हैं......
ये कहते हुये श्रीराम नें मन्दाकिनी गंगा को प्रणाम किया.....मैने भी प्रणाम किया, और लक्ष्मण नें भी ।
मन्दाकिनी के तट पर ही खड़े होकर श्रीराम नें दृष्टि चारों और दौड़ाई ......
दूर एक टीला सा था ...............सीते ! वो स्थान ऊंचा है .....और वर्षा का जल भी वहाँ नही रुकेगा .............लक्ष्मण ! तुम भी बताओ वो स्थान ?
हम दोनो से ही राय लेकर श्रीराम उसी टीले पर जानें के लिए चल दिए ।
आप बताइये ! आप इस स्थान के रक्षक हैं .....आप का ही स्थान है ये....क्या इस स्थान में हम लोग दीर्घकाल के लिये रह सकते हैं ?
कितनें विनम्र होकर श्रीराम नें ये बात पूछी थी भीलों से ।
आप पूछ रहे हैं ? आप तो आज्ञा दीजिये नाथ !
तभी निषाद राज आगये थे ...........उन्होंनें प्रभु चरणों में वन्दन करते हुए कहा ..........समस्त भीलों नें निषाद राज को प्रणाम किया ।
ये स्थान उत्तम है स्वामी ! निषाद राज नें कहा ।
मै यहाँ तुलसी का पौधा लगाउंगी ........और यहाँ कुछ फूल ........मैने चारों और घूमकर निरीक्षण करना शुरू कर दिया था ।
और इस वट के चारों और मै वेदिका बना दूंगी ......आप उसमें बैठकर लोगों से मिला करना ।
हाँ ......अब यही है हमारा राजमहल !
ये कहते हुए हँसे थे मेरे स्वामी श्रीराम ।
मै कुछ शाखाएँ और तृण ले आता हूँ .........लक्ष्मण जैसे ही ये कहकर जानें लगे ............तभी सैकड़ों भील युवकों नें सूखे कांस, मूँज..... बाँस ........पेड़ की शाखाएँ .............ये सब लाकर रख दीं. ....और कुल्हाड़ी लेकर ..........सब लोग कुटिया बनानें के लिये लग गए ।
लक्ष्मण भैया ! सिर झुकाकर निषाद राज नें कहा ......
आप प्रभु को ....और माता को लेकर मन्दाकिनी स्नान करके आएं ....तब तक कुटिया तैयार हो जायेगी ।
मुस्कुराये श्रीराम......और चले गए थे हम मन्दाकिनी में स्नान के लिये ।
शेष चरित्र कल ..........
Harisharan
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