आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 48 )
नाथ आज मैं कहा न पावा ...
( रामचरितमानस )
***कल से आगे का चरित्र -
मैं वैदेही !
"केवट नें कठौते में नई गंगा प्रकट की" ।
हाँ प्रेमी में एक अलग ही ठसक होती है ...........अपनें प्रियतम की ठसक ..........प्रियतम से लगे प्रेम की ठसक ।
"गंगा जल" कहाँ लाया था चरण धोनें के लिए केवट !.........वो तो पानी लाया था ।
हँसते हुये लक्ष्मण नें पूछा भी था ......गंगा जल से चरण पखार केवट !
ये तो सामान्य पानी है .........गंगा जल क्यों नही ?
तब केवट गम्भीर हो गया था .........कहनें लगा ..........पुरानी किताबें कहती रहती हैं.............कि "गंगा गंगा"......ऐसे नाम भी लो तो व्यक्ति भवः सागर से तर जाता है .........पर हम लोग तो रोज इसी गंगा में ही पड़े रहते हैं ..........हमें तो ऐसा कुछ लगा नही ।
फिर मन में विचार आया ...........ये गंगा अब पुरानी हो गयी है ........क्यों न आपके चरणों से दूसरी गंगा प्रकट की जाए ?
इसलिये मैं , कठौते में सामान्य पानी ही लाया .......चरण आपके मेरे सामनें ही हैं ..........अब दूसरी गंगा बहनें वाली है .......जो प्रेम की गंगा होगी ............जो सभी को पवित्र करेगी ...........त्रिभुवन को ।
प्रेम कब कर्मकाण्ड को माननें लगा भला ?
और क्यों मानें ?
प्रेम अपनें आपमे ही पूर्ण है ......परिपूर्ण है ।
आज इसी प्रेम के बन्धन में बंध कर तो मेरे प्रभु श्रीराम केवट की हर बात मानने के लिए विवश थे ....ये विवशता भी तो प्रेम की ही थी ।
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चरण धोये केवट नें ......चरणामृत पान किया.........केवट नें उस जल को अपनें परिवारी जनों के ऊपर छींटा ।
अब बैठें नौका में ?
ये बात भी मुस्कुराकर ही पूछ रहे थे श्रीराम केवट से ।
नही नही .......अभी नही ....................केवट बोला ।
क्यों ? चरण धो तो लिये ?
पर आप इन चरणों को फिर भूमि में रखेंगें तो धूल तो लगेगी ही ना !
और धूल लगेगी तो फिर गड़बड़ ! केवट हँसते हुए बोला था ।
तो ? श्रीराम नें पूछा ।
हे नाथ ! ये कहते हुए केवट नें अपना गमछा बिछा दिया ।
अब इसमें आप अपनें चरण रखिये !
श्रीराम प्रभु नें अपनें चरण केवट की गमछा के ऊपर रखा था .....।
आहा ! कितना धन्यभागी है ये केवट !..........उठा लिया केवट नें मेरे श्रीराम को ..........नेत्रों से जल गिरनें लगे थे केवट के ।
देवों नें फिर पुष्प बरसानें शुरू कर दिए ..................पर केवट नाच रहा है श्रीराम को उठाकर .......।
नाव में ले जा कर रख दिया ...............श्रीराम को ..........।
अब हम दोनों को बुलाया...........बड़े आदर से बिठाया नाव में ।
फिर तो रस्सी खोल दी थी नाव की......चल पड़ी नाव गंगा की धारा में ।
झूमते हुए नाव चला रहा है केवट ........अपनी भाषा में गीत गाते हुये नाव चला रहा है केवट ।
केवट ही नही झूम रहा, केवट की मस्ती में गंगा मैया भी झूम रही थीं ।
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कब पार पहुँच गए थे किसी को पता ही नही चला !
नाव किनारे में लग गयी थी ..........केवट उतरा ..........बेमन से नाव को बाँधा ...............अनिच्छा पूर्वक हम लोगों के सहित श्रीराम को भी नाँव से उतारा ..............।
अब केवट चरणों में गिर गया था .......अपनें आँसुओं से चरणों को भिगो दिये थे श्रीराम के ।
उठो केवट ! उठो !
मेरी और देख रहे थे मेरे श्रीराम ............मैं समझ गयी थी कि प्रभु केवट को कुछ देना चाहते हैं ...............।
मैने तुरन्त "रामनाम" अंकित मुद्रिका उतारी और श्रीराम के हाथों में दे दी।
ये क्या है प्रभु ? बिलख उठा केवट तो ।
अँगूठी है .............ले लो ........प्रभु श्रीराम बोले थे ।
मै उतराई नही लूंगा , नाथ ! ये बात मैं कह चुका हूँ ।
केवट नें स्पष्ट कहा ।
केवट ! ये उतराई नही है ......ये तो "रामनाम" अंकित मुद्रिका है ।
इसका मतलब ये है केवट कि ......तुम्हे मैं अपना "राम नाम" दे रहा हूँ ....इस नाम साधना को ले लो । मेरे श्रीराम नें केवट को बुझाना चाहा ।
नही नाथ ! ये राम नाम मन्त्र भी है ......तो भी मै इस मन्त्र को नही चाहता .............क्यों की मन्त्र लेनें पर उसका जाप करना आवश्यक है ..........अब प्रभु ! मुझ से ये जप, तप , ध्यान , धारणा , समाधि ये कुछ भी होनें वाला नही है .........! आप मुझे साधना में लगाना चाहते हैं ....पर नाथ ! मै साधना नही कर पाउँगा ........इसलिये ये भले ही राम नाम अंकित मुद्रिका हो ...............मुझे नही चाहिये ।
मेरी तो बस इतनी ही साधना है .........कि हे नाथ ! मैं आपका हूँ ।
मैं बस आज से आपका हूँ ..................।
मुझे क्या नही मिला ? आप बताइये ! आपके चरण मिल गए .....
मुझे और कुछ चाहिए क्या !
नही नाथ ! कुछ नही चाहिये ..............आपसे सम्बन्ध जुड़ गया ..........आप मुझे अपना माननें लगे .........मैं आपको अपना माननें लगा .......इससे बड़ी साधना और क्या होगी ?
केवट नाचनें लगा था.........................
इस नाव में अब कोई नही बैठेगा !
हे नाथ ! जिस नाव में आप बैठे हों .....उसमें मै किसी और को बैठा कैसे सकता हूँ ............।
रो गया केवट ।
नाथ ! ये केवट अब चौदह वर्ष तक यहीं बैठेगा ..........किसी को नही देखेगा ..........जिन आँखों नें आपको देखा हो .....वो आँखें अब भला किसी और को देख पाएंगीं .....?
आधी धोती फाड़ ली थी केवट नें .....और अपनी आँखों में बाँध ली ।
आप को अब आना ही पड़ेगा लौटके .........तभी मै ये आँखों की पट्टी खोलूंगा.....और उस समय आप जो देंगें प्रसाद मान कर ले लूंगा ।
केवट को मेरे श्रीराम नें अपनें हृदय से लगाया ........वो बेचारा केवट तो हिलकियों से रोता रहा ...........पट्टी बाँध ली थी आँखों में ।
आपको आना होगा मेरे पास , आओगे ना नाथ !
मैं यही बैठा हूँ......चौदह वर्ष तक यहीं बैठा रहूंगा ..आपके इंतजार में ।
प्रेम कोई जात और पांत तो देखता नही ..........ये किसके हृदय में प्रकट हो जाए कोई नही जानता ..................
वो केवट वहीं बैठा रहा .................उसी नाव के पास ............।
हम लोग आगे के लिए बढ़ गए थे ।
शेष चरित्र कल .......
Harisharan
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