वैदेही की आत्मकथा - भाग 46

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 46 )

केवट मीत कहे सुख मानत...
( विनय पत्रिका )

***कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही ! 

क्या विलक्षणता है मेरे श्रीराम में !  

मुझे हँसी आरही है  उस  अलबेले  श्रीराम भक्त पे ........

हाँ   जब  महामन्त्री सुमन्त्र को  रथ में बिठाकर  श्रीराम  गंगा के किनारे आये .........तो  वहाँ   कोई नाव नही थी ...........बस  दूर में एक नाव खड़ी थी .......उस नाव का केवट था वो - श्रीराम भक्त   ।

मैं उसी केवट के बारे में  बता रही हूँ   ।

मेरे आश्चर्य की कोई सीमा नही रही उस समय ........जब  रघुवंश मणि  श्रीराम नें  उस केवट से नाव माँगी  ।

इन्द्र से रथ नही माँगा ................जरूरत तो उतनी ही थी  उस समय भी  रथ की . ......जितनी जरूरत इस समय  नाव की पड़ी   ।

वो लंका का महाभीषण युद्ध ..........श्रीराम और  उस रावण का युद्ध ।

और आश्चर्य की बात ये थी ......कि  पैदल युद्ध कर  रहे थे  मेरे श्रीराम ....और  रथ पर बैठा था रावण  ।

उस समय  इन्द्रादि देव आकाश में ही थे ...........इन्द्र नें प्रार्थना करते हुये कहा भी .........आपकी क्या सेवा करूँ  !

पर  श्रीराम नें इन्द्र से रथ माँगा नही ..........हाँ बाद में स्वयं  रथ भेज दिया  इंद्र नें,   वो बात अलग है .......पर   रथ माँगा नही  ।

यहाँ      एक केवट से  नाव मांग   रहे थे .....................

कहना ही होगा कि .......प्रेम के हाथों ही बिकना  मेरे  प्रभु श्रीराम को पसन्द है ..........।

मुझे याद है .......जब  अवध में   राज्याभिषेक हुआ .........चौदह वर्ष बाद   राम राज्य की स्थापना हुयी .........तब   वहाँ प्रश्न उठा था ।

आपको  चौदह वर्ष के वनवास में    मित्र तो बहुत मिले होगें ?   आप जिसे अपना मित्र मानते हों  वो कौन है  ? 

ये प्रश्न  श्रीराम से किया गया था ...........उस समय  मैने भी  सुग्रीव की और ही देखा......और  सुग्रीव  भी तन कर खड़े हो गए थे ।

पर  वो  दृश्य  बड़ा भावुक कर देनें वाला था ..........

उस समय  श्रीराम  उठे थे ..............धीरे धीरे  चलते गए .....सुग्रीव को तो पक्का लग रहा था .......कि मेरे ही पास आयेंगें प्रभु ....पर नही ।

आगे विभीषण जी खड़े थे ...............उन्हें लगा  मैं  हूँ इनका मित्र !

पर नही ......सबसे पीछे  बैठा हुआ था ............वो भोला केवट ।

उस  दिव्य सभा में  से  श्रीराम नें केवट को उठाया .........और उसका हाथ पकड़ कर   ऊपर  अपनें साथ लेकर आये .......सबको  दिखाया  श्रीराम नें .......ये मिला मुझे मेरा मित्र  ।

संकोच से गढ़ा जा रहा था वो भोला  केवट  .................

क्या  प्रेममूर्ति हैं  मेरे श्रीराम !...............इन्हें प्रेम की रज्जु के अलावा कोई  अन्य बन्धन  बाँध सका है क्या  ?

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केवट !   केवट !  

श्रीराम नें  आवाज लगाई थी  ।

निषाद राज नें भी आवाज  लगाई ................

पर  केवट बैठा रहा ............अपनी मस्ती में  बैठा रहा  ।

हाँ   इतना अवश्य बोला था केवट  !

क्या बात है  !    वहीं से बोलो   !

नाव ले आओ ..................पल्ली पार जाना है  !

मेरे श्रीराम नें ही उसे कहा था  ।

वो उठा ...........एक पतवार जोर से मारी  और नाव ले तो आया .......पर  ।

जैसे ही  मेरे श्रीराम बैठनें लगे थे नाव पर ........वो   केवट तुरन्त बोल उठा..........नही  नही ..............मेरे पेट पर लात तो मत मारो ।

सब चौंके ...........मेरे श्रीराम चौंके थे ........मैं  , लक्ष्मण .....और  निषाद राज भी  ।

तेरे पेट में लात कौन मार रहा है  भई  !

निषाद राज नें  केवट से कड़े शब्दों में पूछा था ।

किसी की आजीविका को छीन लेना ही  तो पेट में लात मारना है .....क्या नही  ?   केवट का कहना सही था  ।

भैया !   हम कहाँ  तुम्हारी आजीविका  छीननें वाले हैं  ऐसे मत बोलो !

श्रीराम नें कहा था  ।

आप अगर मेरी नाव में बैठोगे  तो  मेरी  ये  नाव रहेगी ?  

ये क्या बात हुयी  ?        प्रभु श्रीराम के नाव में बैठते ही  नाव गायब हो जायेगी ?        लक्ष्मण नें कहा  ।

अरे !  आप नही जानते ..........जब इनके चरण की धूल से पत्थर नारी हो सकती है.......  शिला अहिल्या हो सकती है .........तो  ये तो  लकड़ी की नाव है.......हो ही जायेगी  नारी   मेरी नाव........अब बताइये मेरी  आजीविका खतम हुयी की नही  ? 

पर कुछ भी कहो .......मुझे भी  केवट बहुत भोला लगा .............मुझे हँसी आरही थी .............पर  मेरे श्रीराम भी मन्द मुस्कुराये थे  ।

जब से  हम लोग अयोध्या से चलें हैं.......तब से  रोना,  गम्भीरता  ये सब चल ही रहा था.........पर   यहाँ  केवट ऐसा विचित्र मिला ...........जिसनें मेरे श्रीराम को हँसा दिया ..............और जैसे ही  श्रीराम हँसें .......मैने मन ही मन केवट को धन्यवाद कहा था  ।

तो कोई उपाय  ?   

निषाद राज नें  सहजता से पूछा  ।

अब  उपाय तो एक ही है ................ये अपनें पैर धोनें दें ...........अच्छे से धोऊंगा .........क्यों की  मिट्टी का एक भी कण नही रहना चाहिये ........मिट्टी का एक कण भी इनके पाँव में रह गया .......तो बस नारी हो जायेगी  मेरी नाव  ।

निषाद राज भी हँसे .....................

दूसरा उपाय ?    

श्रीराम नें मुस्कुराते हुये   पूछा था ।

अब दूसरा उपाय तो यही है .......कि    उस तरफ  से आप जाइए .....और.........फिर सोच में पड़ गया केवट.......फिर  स्वयं ही  सिर हिलानें लगा ........नही नही  आपसे  ये काम नही होगा  ।

नही......कोई दूसरा उपाय नही.....बड़े भोलेपन से बोला था केवट  ।

पर पहले तुम कुछ सोच रहे थे .........मेरे विचार से तुम  दूसरा कोई उपाय सोच रहे थे  ?     श्रीराम को भी  इस  प्रेमी भक्त से  उलझनें में आज  आनन्द आरहा  था  ।

नही .........कोई उपाय नही है.......मैने सोचा था  कि आप  उधर से तैरते हुये निकल सकते हैं .........पर  नही  आपको तैरना कहाँ आता है  ।

लक्ष्मण  नें  तुरन्त  कहा ...........हद्द करता है भाई !    इनको तैरना क्यों नही आता  ? 

केवट नें कहा....इनको तैरना नही आता........हे लक्ष्मण ! इन्हें "तारना" आता है ......इन्होनें  यही काम तो किया है ....तारनें का  ।

मै फिर हँसी ............साडी का पल्लू  मुँह में रख -  मै हँसी  .......और मैं  इसलिये भी  प्रसन्न थी  कि  ये  भोला केवट  मेरे प्रभु को हँसा था .....मेरे प्रभु श्रीराम हँस रहे थे .....खुल कर हँस रहे  थे  ।

अब तो आप लोगों के पास एक ही उपाय है .................चरण धुवाओ .....और बैठो नाव में  ।

फिर कुछ सोच कर केवट बोला ...............आप ऐसा मत सोचना कि मैं आपसे कुछ उतराई लूंगा .......ना भगवन् !   मै कुछ नही लूंगा  ।

क्या  भरोसा  तेरा  ?   

निषाद राज नें  कहा  ।

मै इनके पिता जी की कसम खाता हूँ ..........केवट मुँहफट  है  ।

लक्ष्मण जी नें कहा...........अपनें पिता की कसम खा ......हमारे पिता की कसम क्यों खा रहा है भाई  !

केवट नें कहा ..........हे भगवन् !  जल्दी करो ........अपनें चरण धुवाओ और बैठो नाव में ..........ज्यादा बातें बनानें से कुछ नही होगा ।

अच्छा भाई !    वही काम कर जिससे तेरी नाव बची रहे ...........

मेरे श्रीराम हँसते हुये बोले  ।

देखो !  हम तो  जँगली लोग है ........ये सब परोक्ष से बोलनें वाली भाषा हम    नही जानते .............सीधे बोलो -  करना क्या है  ? 

हँसते ही जा रहे हैं  मेरे श्रीराम  केवट की हर बात पर  ...........फिर बोले .......जल लेकर आ  और मेरे पाँव धो ।

केवट दौड़ा  अपनें घर की ओर ................

ए   ए ! सुन !   कहाँ जा रहा है  तू  ! 

श्रीराम नें फिर उसे बुलाया .....................

हे प्रभु !    इतना  शुभ और मंगल कार्य  मेरे परिवार के इतिहास में आज तक नही हुआ  था .....जो आज होंने जा रहा है ............

फिर  मै कैसे छोडूं नाथ !  अपनें परिवार को ........इस मंगल दिन में उनको भी  तो सम्मिलित कर लूँ  ................मै  अपनी पत्नी बच्चे कुटुंब रिश्तेदार नातेदार  सब को बुलाकर लाता हूँ .............

इस बात पर फिर हँसे  थे मेरे श्रीराम  ........

मेरी और देखा था ............और  फिर हँसे थे   ।

शेष  चरित्र कल ................

Harisharan

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