आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 45 )
बरबस राम सुमन्त्र पठाये ...
( रामचरितमानस )
***कल से आगे का चरित्र -
मैं वैदेही !
अयोध्या अनाथ हो जायेगी लक्ष्मण !
जब प्रातः गंगा स्नान के बाद हम लोग किनारे में खड़े थे ....तब एकाएक महामन्त्री सुमन्त्र नें हाथ जोड़कर अयोध्या चलनें की प्रार्थना की थी ।
तब मेरे श्रीराम मुड़े थे लक्ष्मण की और ....और कहा -
अनाथ हो जायेगी लक्ष्मण ! अयोध्या ....... अगर तुम या मैथिली अयोध्या में होते तो .................
हे मेरे नाथ ! बार बार ये सब कहकर हमें दुःखी मत करो ना !
लक्ष्मण के स्वर में दुःख था ........और उलाहना भी था ।
आपके अलावा हमारे जीवन में अब है ही कौन ?
हमारे लिये तो आप ही माता हो ....और आप ही पिता ...भाई बन्धु इष्ट मित्र सब आप हो प्रभु ! लक्ष्मण कातर स्वर में बोल रहे थे ।
आप से रहित तो हम स्वर्ग क्या वैकुण्ठ भी नही चाहते ।
और आपनें क्या कहा !
अयोध्या अब अनाथ होगी !...........अरे प्रभु ! आपनें जब अयोध्या को छोड़ा ......अनाथ तो तभी हो गयी थी अयोध्या ।
लक्ष्मण ! तुम समझ नही रहे भाई !
अभी भरत नही है अयोध्या में ..........और महाराज भी अस्वस्थ हैं ।
प्रजा को कौन संभालेगा ? तुम अगर चले जाते ............
मत कहो बार बार प्रभु !
अगर आप ज्यादा जिद्द करेंगें तक ये लक्ष्मण अभी इसी सुरसरी में कूदकर अपनें प्राणों का उत्सर्ग कर देगा ।
लक्ष्मण के मुख से ये सब सुनकर ............अब मेरे श्रीराम मेरी और देखनें लगे थे ।
मैने महामन्त्री जी की और देखा ............और उन्हीं की और देखकर मैं बोली थी ।
हे तात सुमन्त्र ! नारी का धर्म क्या है आपको मैं बताऊँ ये शोभा नही देगा ..................
पर नारी के लिये पति से बढ़कर और कुछ है क्या ?
पति सम्बन्ध के कारण ही तो अन्य सम्बन्ध बनते हैं ..............पर मूल सम्बन्ध तो पति ही होता है ना ?
इस बात को हर ऋषि नें अपनें शास्त्रों में कहा है ......।
आप बड़े पुरानें मन्त्री हैं इस रघुकुल के ...........मैं आपसे पूछती हूँ ......कि क्या किसी पतिव्रता नारी को ........अपनें पति को छोड़कर सुख सुविधा में रहना चाहिये ...........?
पति जहाँ वन वन में तपश्वी बनकर घूम रहे हों ......वहाँ नारी को क्या राज वैभव में रहनें की आज्ञा शास्त्र देता है ?
महामन्त्री के सामनें मैनें हाथ जोड़े थे ..................आप रघुकुल के महामन्त्री हैं ......इसलिये आप अनुचित आदेश मुझे नही देंगें !
मेरे मुँह से ऐसा सुनते ही फिर बिलख पड़े थे सुमन्त्र जी ।
मुझे महाराज की आज्ञा है .............श्रीराम मेरे साथ वापस चलें या कुमार लक्ष्मण और सीता को मै अयोध्या ले आऊँ ।
अब बारी थी मेरे श्रीराम की ।
जिस रघुकुल में सत्य के लिये प्रसिद्ध हरिश्चन्द्र जैसे राजा हुए ............जिन्होनें सब कुछ त्याग दिया पर सत्य को नही त्यागा ।
दृढ़ता ऐसी थी हमारे पूर्वजों की ...........कि स्वर्ग से गंगा तक पृथ्वी में ले आये ....................
आप क्या कहेंगें महामन्त्री जी ! कि हम उस कुल के हैं ...........उस महान कुल के ......जिसमें रघु जैसे राजा भी हुए .....जिन्होनें सत्य के लिये सब कुछ दान में दे दिया था ।
आप कहिये ...........हम सत्य को त्याग दें ? या मेरे पिता महाराज त्याग दें ?
महामन्त्री कुछ उत्तर नही दे सके थे ।
निषाद राज !
पास में खड़े निषाद राज के कन्धे में अपनें पावन कर रखकर श्रीराम बोले थे । हे निषाद राज ! क्या आपके पास कोई रथ चालक है ?
हाँ नाथ !
निषाद राज नें सिर झुकाकर कहा था ।
मेरे इन पिता तुल्य सुमन्त्र जी को रथ में बिठाकर अयोध्या तक छोड़ आओ ।
ये सुनते ही हिलकियाँ और बढ़ गयी थीं ...महामन्त्री सुमन्त्र की ।
मेरे श्रीराम समझते हैं ........आज सुमन्त्र जी भाव जगत में ज्यादा ही गहरे गए हैं .......इसलिये ऐसी स्थिति में अकेले रथ चलाकर जाना उचित नही होगा ........इसलिये श्रीराम नें निषाद राज से सारथि की माँग की थी ।
पास में गए थे महामन्त्री के......उनके स्कन्ध में अपनें कर रखकर श्रीराम नें कहा था......महाराज को मेरी और से प्रणाम करना हे तात सुमन्त्र ! । ये श्रीराम अपनें पूर्वजों के बताये सत्य मार्ग से कभी डिगे नही ऐसा आशीर्वाद दें आप ।
और कह देना उस स्त्रीलम्पट दशरथ से की अब तो प्रसन्न है वो ।
लक्ष्मण !
जोर से चिल्लाये थे श्रीराम, लक्ष्मण से .......क्यों की ये बात लक्ष्मण नें कही थी ।
लक्ष्मण चुप हो गए थे ।
तात ! सुमन्त्र ..........लक्ष्मण नें जो कहा .........वो बात आप पिता जी से जाकर नही कहेंगें ......कहिये तात ! आप नही कहेंगें ना ?
सुमन्त्र जी को विरह व्याप रहा था........वो हिलकियों से रो रहे थे ।
शेष चरित्र कल .....
Harisharan
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