वैदेही की आत्मकथा - भाग 35

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 35 )

चौदह बरिस राम वनवासी...
( रामचरितमानस )

** कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही ! 

राघव !  राघव !  द्वार खोलिये राघव !  मैं महामन्त्री सुमन्त्र ।

वो समय ब्रह्म मुहूर्त का था ........मेरे श्रीराम अभी उठे ही  थे ....।

मैं स्नान करके  स्वच्छ वस्त्राभूषण धारण करके ........

तभी हमारे महल का द्वार महामन्त्री सुमन्त्र जी नें खटखटाया था ।

सीते !   देखना   महामन्त्री जी  इतनी सुबह क्यों आये हैं  ?

मैने द्वार खोला ............राघव  कहाँ हैं  ?   क्या अभी तक शयन में हैं ?

घबराये हुये थे महामन्त्री जी .........उनका मुख मण्डल निस्तेज था ।

मै समझी नही ...........मैने झुककर  प्रणाम किया था  सुमन्त्र जी को ।

आशीर्वाद भी देना है   ये भी  इनको आज स्मरण में नही था .......मेरी और उन्होंने ज्यादा ध्यान ही नही दिया ।

.....राघव !  राघव कहाँ हैं ?  बस यही रट सी लगा ली थी महामन्त्री नें ।

सुमन्त्र जी !    आप बैठिये ना  !    कैसे  इतनी सुबह सुबह  ? 

मेरे श्रीराम  आगये थे...और उन्होंने बैठनें के लिए भी कहा .....पर ।

नही  राघव !    इतना समय नही है .........आप शीघ्र मेरे साथ चलें  ।

घबराये सुमन्त्र जी  बोले जा रहे  थे  ।

पर तात सुमन्त्र !  बात क्या है  ?  मेरे श्रीराम नें  सुमन्त्र जी से पूछा था ।

महाराज  अवधेश !      चक्रवर्ती  अवधेश  !     

क्या हुआ  पिता जी को  ?      ठीक तो हैं ना  ?      मेरे श्रीराम नें पूछा ।

नयनों से आँसू बह चले  सुमन्त्र जी के ................मैं अनिष्ट की आशंका से काँप गयी थी   ।

मै  ज्यादा तो नही जानता .........पर   इस रघुकुल की सेवा किये हुए  मुझे वर्षों हो गए ........पर ऐसी  महाराज की स्थिति मैने आज तक नही देखी........वो   महारानी कैकेई के महल में हैं   .......और  और...

इससे ज्यादा  सुमन्त्र जी बोल नही पाये   और  हिलकियों से रो पड़े ।

राघव !    आज  आपका राज्याभिषेक है  .........ऐसा विचार करके मैं  महाराज के महल में गया ........तो मुझे  महारानी कौशल्या नें बताया की  महाराज तो कल साँझ से ही कैकेई के महल में हैं  ।

मुझे बहुत व्यवस्था देखनी थी ......मुझे कुछ विमर्श भी करना था महाराज से .......मेरे पास समय नही था ......इसलिये मुझे महारानी कैकेई के महल में जाना पड़ा ।

हे राघव !  मैने वहाँ जो देखा .....................

आपनें क्या देखा   वहाँ सुमन्त्र जी ?     

महाराज धरती पर पड़े हुए हैं .................और  महारानी कैकेई   उन्हें वचनों के द्वारा  कष्ट पहुँचा रही हैं ............

हे राघव ! इससे ज्यादा  मैं कुछ कह नही सकता .......महारानी कैकेई और महाराज नें  आपको शीघ्र बुलवाया है .......राघव !  चलो ।

मेरे श्री राम  बिना समय गंवाए  महामन्त्री के साथ चल दिए थे  तेज़ चाल में  ।

महामन्त्री सुमन्त्र  का  पुत्र साथ में था ...............मैने  तुरन्त   उसे रोका ....और उससे कहा .......कैकेई के महल में जो कुछ होगा ....जो बातें होंगीं  या हुयी .......वो सब  तुम हमें बताओगे  !

मुझे प्रणाम करते हुये  महामन्त्री  सुमन्त्र के पुत्र नें    मेरी  आज्ञा स्वीकार कर ली  ।

और  मुझे ही  बाद में आकर  महामन्त्री के पुत्र नें  -  कैकेई के महल की सारी घटनाएं  बताई थीं  ।

******************************************************

मुझे बताया था   सुमन्त्र पुत्र नें -  

मेरे श्रीराम  गए  कैकेई के महल में ......चक्रवर्ती महाराज जमीन पर लेटे हुये हैं .......और सामनें खड़ी है  महारानी  कैकेई  ।

पिता जी !       

महाराज की ऐसी दशा देखकर   दौड़ते हुये   श्रीराम नें   चरण पकड़ लिए थे  महाराज दशरथ के  ।

पिता जी !    क्या हुआ आपको ?    बताइये  मुझे ।

पर महाराज दशरथ की स्थिति ऐसी नही थी  कि वो कुछ बोल भी सकें । 

माँ !  माँ !    आप तो बताओ  क्या हुआ  पिता जी को  !

कुछ नही ......मैने वरदान माँग लिए थे  तुम्हारे पिता जी से  ।

महारानी कैकेई का रूखा ज़बाब  था  ।

माँ !  ऐसा क्या माँग लिया आपनें  की  "रघुकुल" का   सूर्य  निस्तेज हो गया !

माँ !  ऐसा क्या वरदान मांग लिया  जिसे  देनें में मेरे पिता समर्थ नही हो रहे ............।

माँ !  बोलो माँ !  क्या माँगा  तुमनें  ऐसा  ......कि  सूर्यवंश का  सम्राट आज  ऐसे  दीन हीन स्थिति में पहुँच गया  ।

मैने दो वरदान माँग लिये थे ...................कैकेई  नें उत्तर दिया ।

कौन से दो वरदान माँ ?  

पहला वरदान  ........भरत को राज्यसत्ता  .....।  इतना सुनते ही  ......

नाच उठे थे मेरे श्रीराम  ......उनका अंग अंग पुलिकित हो उठा था ।

सुमन्त्र के पुत्र नें मुझे  बताई  ये सारी बातें  ..........

माँ !  ये तो तुमनें  मेरी  इच्छा  पूरी की है ................

और दूसरा वरदान ?      श्रीराम नें पूछा था  ।

दूसरा वरदान  ..............तुम्हे  चौदह वर्ष का वनवास  ।

माँ !   माँ !    तुम कितनी अच्छी हो............मेरे श्रीराम  झूम उठे थे ।

मुझे याद है .........महामन्त्री सुमन्त्र के पुत्र नें   ये बताया था मुझे  कि  जब  मेरे श्रीराम नें सुना कि उनको चौदह वर्ष का वनवास मिला है ....

तो  मेरे श्रीराम को इतनी  ख़ुशी हुयी ..........जैसे कोई हाथी का बालक किसी दलदल  में फंस जाता है ..........निकल नही पा रहा ........तब  उसकी माँ आती है ............और   सूंढ़  से  अपनें बालक को खींचकर बाहर निकाल देती है  .......तब   वह हाथी का बालक जैसे झूम उठता है ..........और स्वतन्त्रता की हवा में  दौड़ता है ..........ऐसे ही  श्रीराम की स्थिति हुयी थी  ।

पिता जी !   आप  रोयें नहीं .........बस चौदह वर्ष की तो बात है ना  ।

मेरे श्रीराम  महाराज दशरथ जी के पास आगये थे ........चरणों को सहलाते हुए   बोल रहे थे  ।

मैं खुश हूँ .........मैं बहुत प्रसन्न हूँ  पिता जी ! 

अब देखो ना !    मेरा भाई भरत राजा बनेगा ......इससे ज्यादा ख़ुशी की बात मेरे लिये और क्या होगी  ! 

तभी  श्रीराम के नेत्रों से झरझर आँसू बहनें लगे थे  .............

तुम रो रहे हो  राम !      क्यों ?  अभी तो कह रहे थे कि तुम खुश हो ?

महरानी कैकेई नें  श्रीराम से पूछा था  ।

नही माँ !   मैं  बहुत खुश हूँ .........मेरा भाई भरत राजा बनेगा .....मेरे लिए इससे ख़ुशी की बात और क्या हो सकती है !

पर  .......माँ  !           चुप हो गए थे श्री राम  ।

पर .......क्या  राम  ?    

राम इन आँखों  से अपनें भाई का  राज्याभिषेक नही देख  पायेगा ।

इतना कहते हुए   श्रीराम हिलकियों से रो पड़े थे  ।

मेरी बहुत इच्छा थी  माँ !     कि  अपनें भाई  का राज्याभिषेक  देखूँ ।

फिर कुछ देर बाद  श्रीराम तुरन्त बोले थे .......माँ !  एक काम करना न !

जब मेरे भाई भरत का राज्याभिषेक हो ना .......तब  मेरे पास जंगल में  सूचना पहुँचा देना माँ !     कि आज के दिन भरत भाई राजा बना है ।

हम भी जंगल में नाचेंगें .........उत्सव मनायेगें भीलों के साथ ।

उफ़ !   किस मिट्टी के बने हो  राम तुम .............

ये कहते हुए  अब  कैकेई रो पडीं थीं   ।

शेष चरित्र कल ................

Harisharan

Post a Comment

0 Comments