वैदेही की आत्मकथा - भाग 34

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 34 )

दोषु देहि जननी जड़ तेहिं...
( रामचरितमानस )

***कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही ! 

जैसे किसी शूर को  कोई लक्ष्य से भटका दे  तो उसका विचलित होना दिखाई दे जाता है ..........ऐसे ही मेरे  श्रीराम विचलित हो गए थे ....अपनें  राज्याभिषेक की बातें सुनकर  ।

बार बार उनका यही कहना था .......भरत को राज गादी क्यों नही ?

पर  मैने झरोखे से बाहर देख रहे   श्रीराम के मुखारविन्द में  एकाएक प्रसन्नता फ़ैल गयी थी.. .....ये देखा  ।

वो  तुरन्त बिना कुछ कहे सुनें   मुझ से इतना ही बोलकर चल दिए ......ओह !  सीते !  मुझे मेरी माता कैकेई नें आज  भोजन में बुलाया था ।

न जाऊँगा  तो  उन्हें बुरा लगेगा  ।

हँसी आती है मुझे तो .......श्रीराम वनवास का दोषी कौन है ? 

कैकेई ?  या मन्थरा ?   

नही ......ये दोनों ही नही हैं .........सत्य संकल्प  मेरे श्रीराम ही हैं ।

वो  अभी बंधना नही चाहते थे.........वो  आर्यावर्त की यात्रा में जाना चाहते थे.....वो  अपनें आर्यावर्त को  देखना  चाहते थे ....लोगों से मिलना  चाहते थे......पर  राज्यसत्तारुढ़ होजानें पर ये क्या सम्भव था  ?

अब रही बात कैकेई की  ......उन्होंने तो  त्याग किया है  अपनें प्रिय पुत्र राम के लिये ........ऐसा त्याग   कि  शायद ही  इतिहास में किसी नें किया हो .............लोग  "कैकेई"  इस नाम से  घृणा करनें लगे थे ।

पर ये सब किसके लिए ...?        सिर्फ  अपनें पुत्र राम के लिए ।

******************************************************

माँ ! माँ ! माँ !  

कैकेई के भवन में  श्रीराम पहुँचे ..........

मेरे राम !  आओ !      

श्रीराम को  अपनें चरणों से उठाकर  हृदय से लगा लिया था  कैकेई नें ....और माथे को बड़े प्यार से सूँघा था  ।

आपको  कोई  सूचना मिली  राजदरवार से  ?  

श्रीराम नें  पूछा  था कैकेई से ..........उन्हें ये लग रहा था कि  राज्याभिषेक की बातें  माँ कैकेई तक पहुंची या नही ? 

नही !       इतना कहकर  फिर रसोई में चली गयीं थीं कैकेई ।

पुत्र राम !   बस  रसोई तैयार ही है ...........थोडा ही समय लगेगा ।

पर माँ  !   आज  मै  तुम्हारे यहाँ  कुछ खाऊंगा नही .............

श्रीराम  रसोई में ही चले गए थे  ।

( श्रीराम के लिये  कैकेई स्वयं ही  बनाती थी भोजन, दासियों से नही )

क्यों ?     एकाएक कैकेई नें  राम के मुख मण्डल को देखा ।

क्यों ?  ऐसा क्यों कह रहे हो ? 

एक पुत्र  क्या  कुछ माँग नही सकता अपनी माँ से ..........और  इसके लिये वो जिद्द करे  तो क्या गलत होगा माँ ? 

श्रीराम नें  अपनी माँ कैकेई से   बड़े अपनत्व से कहा था ।

ओह !  तो मेरे पुत्र राम को  आज कुछ माँगना है !  माँगो ! 

  ये कैकेई कुछ भी देगी ! माँगो  राम !  ।

देख लो !    माँ  !    अच्छे से विचार कर लो ...........कैकेई के कन्धे में अपना सिर रखकर  दुलारू बनते हुए  श्रीराम नें कहा था ।

हाँ हाँ ......कैकेई का वचन है .............अपनें प्राण दे देगी कैकेई !

श्रीराम उठे ...........माँ  !      बड़ा कठिन पड़ेगा  राम का वचन तुम्हे !

माँग ना !     जल्दी माँग.....मै अपनें राम के लिए कुछ भी कर सकती हूँ ।

बदनाम हो जाओगी माँ !    श्रीराम नें कहा  ।

कोई बात नही .......अपनें पुत्र के लिये  ये कैकेई बदनाम भी हो जायेगी ।

तुम ........तुम विधवा भी हो सकती हो  ! 

ये  क्या कह रहा है  तू ?    कैकेई नें  राम के मुख की और देखा ।

हाँ ..........माँ !   ये भी हो सकता है  ।

कैकेई चुप हो गई .............।

चरण में बैठ गए थे श्रीराम ...............कैकेई के चरण को पकड़ कर बोले .......तू हिम्मत वाली है माँ ..............ऐसे हिम्मत मत हार ........

अपनें  आपको सम्भाला कैकेई नें .........फिर  राम के मुख की और देखते हुए लम्बी सांस लेकर बोली ..........माँग !   हे राम !  माँग  !

********************************************************

माँ !    बात ये है  कि    मुझे राज्य देनें की तैयारी में  सारा शासन जुट गया है ............कल ही मेरा  राज्याभिषेक है  ।

कैकेई आनन्दित हो उठी ........ये तो  बहुत ख़ुशी की बात है  राम ।

माँ !   साँझ से समय  पिता जी आपके पास आयेंगें .....ये सुचना देनें के लिये ...........।

माँ !  सुन,   मेरी बात सुन ! 

    कैकेई का हाथ पकड़ कर  राम नें उच्च आसन में बिठाया था  और स्वयं नीचे बैठ गए  ।

माँ !  तुम को याद है ना  !   देवासुर संग्राम में  मेरे पिता जी के साथ तुम गयीं थीं....और  वहाँ  युद्ध में  रथ के चक्र की कील निकल गयी थी ।

तुमनें अपनी ऊँगली लगा दी थी ..........।

माँ !  युद्ध के बाद जब मेरे पिता जी को पता चला  तब   वो तुम पर अतिप्रसन्न हुए थे ...........और उन्होंने वरदान माँगनें के लिए कहा था ।

दो वरदान पुत्र !     कैकेई नें  श्रीराम से कहा  ।

हाँ  हाँ .....माँ !  वो दो वरदान  आज साँझ में मांग लेना  ।

पर क्या वरदान माँगू पुत्र ! 

तू क्या कहना चाहता है ....स्पष्ट बोल  ।

कैकेई  के  चरणों को सहलाते हुए  श्रीराम बोले थे .......

माँ !    एक वरदान माँग ले   "मेरे भाई भरत को राज्य" 

क्यों ?    ये मै क्यों माँगू  ? 

माँ !  तुमनें मुझे वचन दिया है ...............।

सिर में हाथ फेरा था कैकेई नें  राम के .......पुत्र !  क्या करना चाहते हो ?

माँ !   ये राम  अभी  राज्य गादी में नही बैठना चाहता  ।

कैकेई नें लम्बी साँस ली .........ठीक है ...........तू जिसमें खुश रहे ।

दूसरा वरदान ?  कैकेई नें पूछा  ।

इस राम को चौदह वर्ष का वनवास  ।

कैकेई  को चक्कर आनें लगे ......उसके आगे  सब कुछ घूमनें लगा था ।

ये क्या माँग बैठे राम !   ये  मै नही दे सकती ।

हिलकियों से रो पड़ी कैकेई ..............नही .........मै तुम्हारे लिए  वनवास नही माँग सकती  ।

तुमनें वचन दिया है ............राम नें कहा  ।

मै तोड़ती हूँ वचन ........।

राम  नें कैकेई से कहा ............आप  अपनें पुत्र के लिए इतना नही कर सकतीं   ?   मेरी ख़ुशी के लिए  माँ  ?    बोलो  माँ ? 

कैकेई  बहुत देर तक कुछ नही बोली ..............

बहुत आस लेकर आया था मै तुम्हारे पास ...........

ठीक है  राम !

.......इतना ही कह पाई थी कैकेई  .........फिर तो जो अश्रु बहे हैं  ।

ख़ुशी से उछल पड़े थे राम..............माँ !  तुमनें  इस राम को जो प्रसन्नता दी है ..............वो कोई नही  दे सकता  था ।

भोजन करके  कैकेई के यहाँ से  राम निकल गए थे ।

कैकेई  देखती रही .............अपनें उस पुत्र  राम को  ।

*******************************************************

मुझे  ये  घटना  स्वयं मेरे श्रीराम नें  चित्रकूट में सुनाई थी .........जब लक्ष्मण गए थे  लकड़ियाँ लेनें के लिये  ।

तब  श्रीराम नें कहा था ............कैकेई का त्याग  !   अद्भुत है  ।

लोग कुछ भी कहें ......पर  ये  राम  सदैव उस माँ को  प्रणाम ही करता रहेगा ..........जिसनें  अपनी बदनामी भी सही ......वैधव्य जीवन को भी सहा .........लोगों के तिरस्कार को भी सहा .....और तो और   अपनें जाए भरत पुत्र की नजर से भी गिर कर रही ..............ये कहते हुए  श्रीराम के नेत्रों से झर झर आँसू बहनें लगे थे ........मेरे लिए ये सब किया  माँ कैकेई नें ।

ये राम  कभी नही भूलेगा वैदेही  !      माता कैकेई का वो त्याग ।

शेष चरित्र कल ..............

Harisharan

Post a Comment

0 Comments