आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 24 )
भयो पानि गहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आनंद भरे ।
( रामचरितमानस )
******कल से आगे का चरित्र -
मै वैदेही !
मै विवाह मण्डप में आगयी थी .........मेरे दाहिनी भाग पर श्रीरघुनंदन बिराजे थे .......उस समय मेरी जो स्थिति थी मै उसको लिख नही सकती .........उसे बोल नही सकती ।
नील मणि.....मेरे बगल में बिराजे थे ...उनके देह की सुगन्ध ! उफ़ !
बस एक बार देखा था मैने उस विवाह मण्डप के प्रसंग में उनकी और ..क्या मदभरी अँखियाँ थीं उनकी ............जो भी देखे वो उनमें ही डूब जाए...........और जो इन नयनो की गहराई में डूब गया वो तो पार ही है.........क्या राजीव नयन के वो नयन !
मेरी सखियाँ गीत गा रही थीं ..............पर गीत के साथ साथ गारी भी दे देतीं तब श्री रघुनन्दन थोडा मुस्कुराते .........ओह ! जिसनें उनकी वो मुस्कुराहट देख ली .........फिर उसे भुक्ति मुक्ति की लालसा नही रहती ..........।
मेरे पिता जी विदेहराज और मेरी माता जी सुनयना ये दोनों उठे थे ....
और इन्होनें चरण पखारनें शुरू कर दिए थे ............माता सुनयना जल झारी से जल डाल रही थीं ......और चरणों को पखार रहे थे मेरे पिता जी .............ओह ! ये तो अभी से भावुक होनें लगे ........
किसी वृद्ध जनकपुर की नारी नें ये भी कह दिया ।
अपनें आँसुओं को बचा के रखो महाराज ! अभी से रो रहे हो तो बेटी बिदा के समय तो आप अपनें को सम्भाल भी नही पायेगें ।
ये कहते हुए वो वृद्धा नारी भी भावुक हो उठी थी ।
इस प्रसंग में तो मेरे पिता जी नें अपनें आँसुओं को रोक लिया था ।
पर अब प्रसंग था ...........कन्यादान का !
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विवाह के बाद बेटी पराई हो जाती है ..........
ये कोई कहता तो बुरा लगता था मुझे ।
मेरे पिता जी ...........मै उनकी लाड़ली थी ............मेरे पिता जी सदैव मेरा ही पक्ष लिया करते .............हाँ मेरी माता जी कभी कभी हम बच्चों के द्वारा उपद्रव हो जाए ..........तो आँखें दिखा देती थीं.......पर मेरे पिता जी नें कभी आँख भी गुस्से में नही दिखाई ।
हर समय ....जानकी ...जानकी ...जानकी ............बस यही रट लगी रहती थी इनको ..............ये जब राज सभा से आते थे .......तब मेरे बिना इन्होनें भोजन भी नही किया आज तक .........मेरी "जानकी" आएगी तभी मै खाऊंगा .............।
फिर मुझे खोजा जाता था ...............और मै ?
मै तो कभी दूध मति के किनारे.............तो कभी कमला नदी के किनारे ...अपनी सखियों के साथ खेलती रहती थी ............
तब रथ आता ...............और मुझे बड़े आग्रह के साथ उसमें बिठाया जाता ........और जब मेरे पिता मुझे देख लेते .....और पहला भोजन का ग्रास मेरे मुख में देते ........मुझे अपनी गोद में बिठाते ...........उस समय मै उनकी दाढ़ी से खेलती ........कभी मूँछों को नीचे कर देती .......कभी ऊपर कर देती .............उस समय मेरे पिता मुझे देखकर गदगद् होते रहते ............।
आज पाणिग्रहण संस्कार हो रहा था उनकी बेटी का ............
वो भावुक हो उठे थे उस समय ...................
मेरे पिता में जितनी धैर्यता है ........उतनी और किसमें है !
पर आज कन्यादान करनें की बारी आयी .......तो मेरे पिता के हाथ काँप रहे थे ................
अब उनकी बेटी का कुल गोत्र सब कुछ बदलनें वाला था .........
अब पिता के घर की ये बेटी नही रहेगी ......इसका घर सम्बन्ध सब कुछ बदल जाएगा .................ऋषि वशिष्ठ जी नें ये कहा था ।
अजी ! ये हृदय किसी कारखानें में तो गढ़ा नही गया !
इसे तो पीड़ा होती ही है .........इसे हूंक सी चुभती ही है .......
जब कोई कह दे .......पिता की अब बेटी नही रही .............ओह !
मेरी आज तक समझ में नही आया ........हम बेटियों का धर्म विधाता नें इतना अलग क्यों रचा है ?
जिस आँगन में मै खेली कूदी .......पली बढ़ी जिस धरती के गर्भ से इस भूमिजा नें जन्म लिया ..........उसका मोह क्या एक दिन में छूट सकता है ! चलो ! मेरे मन से छूट भी जाए .........हाँ जगत मेरे रघुनन्दन को ब्रह्म कह रही है .......तो चलो इन्हीं ब्रह्म की प्राप्ति करके मै धन्यता का अनुभव करूँ ..............पर मेरे माता पिता ?
इनके कोमल हृदय में तो ....एक नन्ही सी लाली भी है .........इन्हें कौन समझाये ..........इन्हें कौन सम्भाले !
मै समझती हूँ .................मै भी रोना चाहती हूँ ..............अरे ! अपनें कुल परिजनों का एकाएक पराया हो जाना किसे भायेगा !
अब मै निमिवंश की नही .....रघुवंश की होनें जा रही थी ...........पुरानें गोत्र को तिलांजलि देकर ............पुरानें वंश को विसर्जित करके .....
उफ़ ! सच में नारियों का हृदय बहुत बड़ा है ..................।
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मेरे पिता विदेहराज तो बेसुध हो रहे थे .............मेरी माता सुनयना आँसुओं को बस पोंछे जा रही थीं ............
ब्राह्मण क्या कह रहे हैं .....ऋषि क्या कह रहे हैं......मेरे पिता कुछ समझनें की स्थिति में ही नही थे ...........
पता नही मेरे पिता जी को क्या स्नेह का भाव उमड़ा .........मुझे अपनी गोद में बिठा लिया था ......सब लोग देख रहे थे .....इस भावुक दृश्य को देखकर महाराज चक्रवर्ती दशरथ जी के भी सजल नयन हो गए थे ।
मेरा हाथ लिया था मेरे पिता जी नें ..............कोमल हाथों को पकड़ कर फिर रो पड़े थे मेरे पिता .................तभी ........
मेरे रघुनन्दन नें नीचे से अपनें हाथों का सहारा दिया ........
मानों कह रहे हों .........मै रघुनन्दन राम ! आपकी पुत्री को स्वीकार करता हूँ ...........और इनका सम्भाल भी करूँगा ।
पहली बार मुझे छूआ था मेरे रघुनन्दन नें ....................
मै अपनें पिता की गोद में बैठी थी ......मेरे पिता के हाथों में मेरे हाथ थे .........पर नीचे से मेरे हाथ को रघुनन्दन नें सम्भाला था ...।
विरह का प्रसंग उपस्थित न हो ..........ऐसी कोशिश ब्राह्मणों नें की ....ठीक किया ................नही तो जनकपुर वासी अगर रोनें लग जाएँ तो ये पूरी पृथ्वी ही जलाशय बन जायेगी ।
मेरे पिता महाराज जनक के राजनैतिक रूप ...सामाजिक रूप, ...पारिवारिक रूप, एक आध्यात्मिक व्यक्तित्त्व का रूप ...ये सब तो लोगों नें देखा था .......पर एक बेटी का भावुक पिता कहीं छुपा था हृदय के कोनें में ..........आज सबनें उसका दर्शन किया ।
ब्राह्मणों नें मन्त्रोच्चार करना आरम्भ कर दिया था .........
पुष्प वृष्टि आकाश से शुरू हो गयी थी ................
चारों और जयजयकार गूँज उठा था ..............
उस समय मेरे पिता मेरी माता सुनयना मेरा कन्या दान कर रही थीं ।
पर उस समय सुबुक रहे थे मेरे माता पिता .................
साथ में जनकपुर की जितनी नारियाँ थीं .....मेरी सखियाँ थीं सब रो रही थीं ............मेरा कन्यादान करते हुए ।
शेष चरित्र कल ................
Harisharan
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