आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 23 )
सखिन मध्य सिय सोहति कैसे ....
( रामचरितमानस )
*******कल से आगे का चरित्र -
मै वैदेही !
मेरे जनकपुर के मानस नें तो इसी विवाह के रस, रास, हास्य, परिहास कोहवर की प्रेम क्रीड़ा के दर्शन चिन्तन को ही अपनी साधना बना ली ..........
है ना विचित्र बात.........छोड़ दिया ज्ञानी के उस निराकार ब्रह्म को ........दृष्टा ब्रह्म हमारे किस मतलब का.........हमें तो उस ब्रह्म की तलाश थी ......जो हमारे साथ खड़ा रहे ......हमारा पक्ष ले ।
छोड़ दिया था इस विवाह महोत्सव के बाद मेरे जनकपुर वासियों नें ............किसी अन्य देवी देवताओं की साधना करना ........।
राम ही तो ब्रह्म हैं !..........अब विदेह नगरी के लोगों को भला कोई समझायेगा ? और मै ! ......उनकी बेटी, उनकी बहन ........उस ब्रह्म की आल्हादिनी शक्ति ..............इसी भाव से ही भरे रहते हैं मेरे जनकपुर वाले .........ब्रह्म और उनकी आल्हादिनी में ही हमारे अन्तःकरण चतुष्टय लग गए ........तो हो ही गया ...............।
अब देखिये मेरी सखी चन्द्रकला जब उस विवाह मण्डप को देखती है ......जहाँ मुझे और मेरे प्राण रघुनन्दन को विराजना है ..........तब वेदान्त के ज्ञान को इस विवाह महोत्सव से कितना सुन्दर जोड़ती है !
मुझे कह रही थी........जो दिव्य विवाह मण्डप बना है ...........ऐसे ही मण्डप मेरे हृदय में भी बन जाए .......काश !
फिर ज्ञान की चरमावस्था में पहुँच जाती है ............कहती है .......मण्डप बनानें के लिए चार खम्भो की जरूरत पड़ती है ......
ऐसे ही हमारे पास भी चार खम्भे हैं .......उनका प्रयोग करो ......
मन, बुद्धि , चित्त और अहंकार .............और मध्य में है कलश .......
ये कलश अद्वैत तत्व का प्रतीक है .........।
मैने तो उस मण्डप को देखा है ...............सिया जू ! इतना सुन्दर मण्डप है कि मेरे पास शब्द नही है उसका बखान करनें के लिए ।
ऐसे ही अगर हम जीव, अपनें अन्तःकरण चतुष्टय को ही मण्डप का स्तम्भ बना दें .................
मैने चन्द्रकला से पूछा था ........फिर क्या होगा ?
चन्द्रकला कहती है ............मैने जब उस मण्डप को देखा .......तो मै समझ गयी ......मणियों के खम्भे हैं .............
और सिया जू ! जब आप और रघुनन्दन विराजेंगें ना उस विवाह मण्डप में ........तो उन मणियों के खम्भों में आप दोनों का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ेगा ।
सिया जू ! क्या अन्तःकरण चतुष्टय की सार्थकता इसमें नही है ......कि मन, बुद्धि, चित्त और अहं ही ब्रह्ममय हो जाए ।
और इतना ही नही ..........चन्द्रकला विदुषी है .........वैसे तो विदेह नगरी का झाडू लगानें वाला भी विद्वान है .........फिर मेरी सखी अगर ज्ञान की ऊँचाई पर स्थित है तो इसमें क्या बड़ी बात है ।
हाँ ........पर मेरे विवाह नें इस ज्ञान की नगरी को प्रेम की नगरी में परिवर्तित कर दिया ..........पर ज्ञान के धरातल पर प्रेम टिका हो ....तो उसकी बात अलग ही रहती है ...........मै भी क्या क्या लिखनें लग गयी हूँ आजकल .........अरे ! प्रेम होना ही पर्याप्त है ...........।
और सिया जू ! आपका ही ये विवाह है .....जो साँझ को शुरू होकर सुबह तक चलनें वाला है ..................
मेरी सखी चन्द्रकला नें मुझे बताया .......................
आपके विवाह से पहले, दिन में ही विवाह की प्रथा थी .............पर ।
पर, क्या चन्द्रकले ! बताओ ........... मैने पूछा ।
दिन का मतलब है....अब रात गयी.......मिलन का समय बीत गया ।
पर साँझ का मतलब है ....दिन गया ......अब रात आनें वाली है .......यानि मिलन की वेला आनें वाली है ......।
और विवाह मिलन की वेला ही तो है ...................दो प्रेमपूर्ण हृदय का मिलन ................एक होंने की चाह का मिलन .............
बेचैनी , तड़फ़, सबसे उचाट ...........और एक मात्र प्रिय से एक होनें की प्यास ..........कोई सीमा न रहे ............कोई बन्धन न रहे ।
सिया जू ! प्रेम असीम है .........वह सीमा में आबद्ध कहाँ ।
रात्रि के विवाह की परम्परा सिया जू ! आपसे ही शुरू होनें जा आरही है ।
सिया जू ! रघुवर रात्रि हैं ......तो आप उस रात्रि में खिलनें वाली चाँद हैं ................आप दोनों एक ही हैं .........दो लगते हैं .......पर अब मै समझनें लगी हूँ.........कि आप दोनों एक दूसरे के लिए ही हो ।
बस एक विनती है स्वामिनी जू !
ये कहते हुये ............चरणों में गिर गयी थी मेरी सखी चन्द्रकला ।
अरे ! तू रो क्यों रही हैं ? मैने उसे उठाया .........
हमें मत भूलना......हम आपके मायके पक्ष के हैं ............सिया जू !
आप बस ऐसे ही खुश रहना ............आप सदा सुहागन रहना ......
पर हम जनकपुर की सखियों को मत भूलना .............
ये कहते हुए अश्रु प्रवाहित करनें लगी थी चन्द्रकला सखी ।
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चलो ! मण्डप में जाना है .............सिया जू को बुलवाया है ......
पद्मा और चारुशीला सखी आगयी थीं .........
और सखियाँ बाहर ही खड़ी थीं ...................
चन्द्रकला से तो बातें ही करवा लो !............सिया जू ! चलिये ......सब अब आपकी ही प्रतीक्षा में ही बैठे हैं ...............
नयनों से बह रहे आनन्दाश्रुओं को पोंछा चन्द्रकला नें ..............अन्य सखियाँ भी आगयीं ...............।
मै मध्य में थी .................मेरे चारों और सखियों का झुण्ड था ।
और मेरी सखियाँ भी कोई साधारण नही थीं ..........अरे ! शची, सावित्री, इन्दिरा, उमा इन सबसे सुन्दर थीं .............
मुझे याद आरहा है वो गीत .............जब मुझे लेकर मण्डप की और चली थीं ...मेरी सखियाँ ................और उस समय गा रही थीं ।
धीरे चलो सुकुमार, सुकुमार सिया प्यारी धीरे चलो सुकुमार ।
( सीता जी यहाँ कुछ देर के लिए उसी गीत को गुनगुनाती है .....और उसी गीत के ये भाव हैं ..............जो अब यहाँ लिखा है )
"चारों और नर नारी बैठे हैं......जब सीता जी आती हैं.......तब सब लोग "जनकदुलारि की - जय जय जय"......कहकर पुष्प बरसाते हैं ।
जब किशोरी जी मण्डप की और चल रही हैं .......तब उनके कंकण, किंकिणि नुपुर बाजूबन्द कुण्डल इनसे जो ध्वनि निकल रही है .....वो वेद की ऋचाओं से भी ज्यादा पवित्र है ।
आहा ! अपनी सिया कैसी लग रही हैं .....सखियों के मध्य में ?
अरी सखी ! सिया जू तो ऐसी लग रही हैं ........जैसे अनेक तारों के मध्य में पूर्ण चन्द्रमा चल रहा हो ।
अरी सखी ! दुल्हन का श्रृंगार तो वैसे ही सुन्दर लगता है......और उसमें भी जब हमारी सिया जू ! .....जिनके सुन्दरता की तो कोई उपमा ही नहीं है ............ऐसी किशोरी जू आज नवल साडी में .......ओह ! मै आगे वर्णन नही कर सकती ..............।
( सीता जी गीत गा रही हैं ........विवाह के प्रसंग को याद कर रही हैं )
अपनें नेत्रों को सफल बनाओ.........किशोरी जू के रूप को निहारो !
ये करुणा की मूर्ति हैं ......ये दयालुता की राशि हैं ....................राम जी के सामनें झुको तब वह अपनें हृदय से लगाते हैं .......पर हमारी किशोरी जू .......! इनके आगे तो झुकनें की भी जरूरत नही है .......सजल नयन, हृदय में प्रेम रखकर इनके सन्मुख चले भी जाओ ना तो इतनें में ही ..........ये अपना हृदय निकाल कर दे देती हैं ।
और इनके हृदय में तो श्री रघुनन्दन ही हैं ना .............ये श्री रघुनन्दन को ही दे देती हैं ...............।
देखो सखी ! हमारी सिया जू नें चुनरी कितनी सुन्दर ओढ़ रखी है ......
काश ! हम इस चुनरी में लगनें वाले झालर ही बन जाते ..........तो कमसे कम अपनी सिया सुकुमारी के आँचल की छायाँ में तो रहते !
आहा ! क्या बात कही है सखी ! हमारी सिया जू के आँचल की छायाँ में तो असीम करुणा भरी है .......सखी ! इनकी छायाँ में रहनें पर तो विश्व् ब्रह्मांड का दुःख कष्ट भी सहज लगता है ..........।
और मेरी किशोरी जू के नयन तो देखो ..........आहा ! और इन नयनो में लगनें वाले काजल !..............
अरी सखी ! सुन सुन ........ये नयन नही हैं.........ये तो कटार हैं ........तुम्हे याद नही है ...........यही कटार तो चले थे राम जी के ऊपर पुष्प वाटिका में .......तब क्या दशा हुयी थी इन रघुनन्दन की .......
अब देखो ..............इन्हीं कटार को धार और दिया गया है .......ताकी इससे कटनें वाला पानी भी न माँगे .......उफ़ !
ये अवध के दूल्हा राम जी तो गए अब काम से ................।
( सीता जी गाती है इस गीत को , याद करके )
कहती चन्द्रकला दुहुँ कर जोर हे ,
आबु सिया हिया बीच, हमर निहोर हे .....
कितना सुन्दर गीत गाती हुयीं मेरी सखियाँ मुझे विवाह मण्डप पर ले गयीं थीं ........उस समय मैने अपनें प्राण धन श्री रघुनन्दन को देखा था ........नील मणि ...........आकाश का रँग ...........उनके वो नेत्र !
उफ़ .......उनके पास मुझे बिठा दिया था .................मै तो देह सुध भूलनें लगी थी ...................
शेष चरित्र कल ......
Harisharan
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