"लोकैषणा"  - एक कहानी

आज  के  विचार

("लोकैषणा"  - एक कहानी )

मेरा मुझ में कुछ नही, जो कुछ है सो तोर
तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर ।
( गो. बिन्दु जी )

अरे ! व्यास जी ..........चलिये ना  थोडा सा पास के ही गाँव में ।

क्यों ?   मैने पूछा था  ।

सुना है  वहाँ   एक सिद्ध महात्मा आये हैं ..........और  ऐसा आशीर्वाद देते हैं  कि हर मनोकामना पूरी हो जाती है  .........।

पर आपके मन में क्या कामना है  अब  ?

व्यास जी !   अमेरिका जानें की कामना है .........।

इन्हें मै बचपन से जानता हूँ ......अब ये सन्यासी बन गए हैं ....थे पहले  गृहस्थ ही ......पर  छोड़ दिया परिवार को ......बन गए सन्यासी  ।

मेरे पास में आये थे  ये  6 महिनें पहले ... दोपहर के  2 बजे .......मै थोडा विश्राम कर रहा था .....तब आये  थे   और मुझे  चलनें का  आग्रह कर रहे थे ।

पर  आपको क्यों   अमेरिका जानें की पड़ी है   !  

यहीं रहिये .............श्रीधाम वृन्दावन में   ...............

फिर   आप  वही निष्कामता का राग अलापेंगे व्यास जी  .......प्लीज़ !     चलिये ना ............उन  महात्मा जी से मिलते हैं   ।

चलो !    मै उनकी गाडी में बैठा ........चल दिया  था  ।

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यमुना जी का किनारा है ...........मौसम शीतल हो गया है इन दिनों ।

पक्षी  चारों ओर विहार कर रहे हैं ........तो  मोर भी अच्छी खासी संख्या में हैं .......वातावरण  बहुत सुन्दर है ।

कहते हैं ...........आज से   हजारों वर्ष पहले  एक सौभरि नामक ऋषि नें यहीं  पर तप किया था .........वृन्दावन के पास सुनरख नामक गाँव है ......हम लोग यहीं पर गए  थे ।

यमुना जी के किनारे ही   वो महात्मा जी  एक झोपडी में विराजमान थे ।

लोगों की भीड़ थी ................महात्मा जी  सब को आशीर्वाद दे रहे थे ।

पर  पैसे कोई नही चढ़ाएगा ..............ये  एक  कागज की  तख्ती में  लिखा हुआ  था .........मैने इधर उधर देखा ........कोई और प्रपञ्च तो नही है .......जैसे  दुकानें ही खोलीं हैं ......ताबीज गण्डा   ये सब......   पर नही ........महात्मा  सच्चे थे .............उन्होंने कोई प्रपञ्च नही किया था ...........बस आशीर्वाद दे देते ........हाँ  कोई  ज्यादा ही कहता तो  उसे    कोई अनुष्ठान बता देते ..........जैसे धन प्राप्ति के लिए   लक्ष्मी का  स्तोत्र बता रहे थे ....."कनक धारा".....इसका पाठ करो ....नित्य ।

भीड़ बहुत थी .................पर  मेरे  साथ के सन्यासी  नें  मुझ से कहा .....आप यहीं  रहना  मै अभी आया ............वो गए .....और    10 मिनट बाद आगये ......समय मिल गया  है मुझे   ......वो बहुत खुश थे ।

समय मिला उन्हें   1 घण्टे बाद का ...........................

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हाँ  महात्माओं !  बताइये  क्या सेवा करूँ ?

अपनी कुटिया में  अंदर हमें बिठाया था .......और  वो स्वयं  महात्मा जी  अब   कुछ देर के लिये  सबको रोक कर   ........स्वयं भीतर आगये थे ।

हम लोगों को  देखा ........तो वो महात्मा बड़े खुश हुए  ।

हाँ ........अब बताइये ..................एक लोटा जल हमारे सामनें स्वयं ही रख दिया था  उन्होंने .......और साथ में मिश्री की  कुछ डली  ।

हम लोगों  नें मिश्री  का   प्रसाद लिया ...................

हाँ   अब बताइये  ?     क्यों पधारे आप लोग  ?

महात्मा जी के  प्रश्न पर ......उन  मेरे  सन्यासी  मित्र  नें कहा ...........मेरा दो बार कैंसिल हो गया है  अमेरिका जाना .......अब मुझे आप बताइये  कि  मै कब जाऊँगा ......अब इन्तजार नही हो रहा ।

विचित्र महात्मा थे वो तो ......मेरे  सन्यासी मित्र की बात सुनकर  वो हँसनें लगे ........काफी देर तक हँसते रहे  ।

और तो बिगड़े  बिगड़े ,  पर तुम तो मत बिगडो माला धारी ।

ये  कहकर   वो फिर हँसनें लगे ..................

पता नही क्या क्या बोलते हैं  ये  महात्मा लोग ।

क्यों जाना चाहते हो  अमेरिका ?  

  उन महात्मा जी की हँसी रुक गयी थी  अब  ।

पहले तो मेरे  सन्यासी मित्र  इस प्रश्न को सुनकर चुप हो गए .........

बताओ  क्यों जाना चाहते हो अमेरिका ?  

क्या  यहाँ पूर्णता नही है  ?   

मेरे सन्यासी मित्र नें   कुछ देर बाद उत्तर दिया ......

हे महात्मन् !       मै आपको अपनें हृदय की बात बताऊँ ........

मै  अपना नाम चाहता हूँ .......मै चाहता हूँ  कि  मेरा नाम विश्व् में हो ......

जैसे  स्वामी विवेकानन्द जी का  हुआ  था  ..........।

पर विवेकानन्द जी नें तो  मेरा नाम हो ये कभी चाहा ही नही .......

अब देखो !      उनकी संस्था का क्या नाम है .....राम कृष्ण मिशन ।

उनके हर आश्रम   रामकृष्ण मठ के नाम से हैं ................उन्होंने अपना नाम  कहाँ चाहा  ?

मै चकित था ..........ये महात्मा जी तो वास्तव में  सिद्ध थे ........उनकी वाणी   सीधे हृदय  के  द्वार  को  खटखटा रही  थी ......।

पर मेरा नाम हो ..........मेरे बड़े बड़े आश्रम बनें .........अमेरिका में ........इसके लिए  मैने अंग्रेजी भी सीखी है  ............और ये गलत तो नही है ना  ?     

इससे क्या होगा  ?    बड़े बड़े आश्रम बन जायेंगें अमेरिका में .....इससे क्या होगा  ?     तुम्हारा होमवर्क अच्छा होगा ...........अंग्रेजी भी सीख ली तुमनें ...........शास्त्रों को भी  अच्छे से पढ़ा होगा .....ताकि उसका अनुवाद  करके  तुम अंग्रेजी में  वहाँ के गोरे लोगों को समझा सको .....पर  मेरा प्रश्न  जस का तस है ...............इससे क्या होगा  ?

अरे !  दुनिया में नाम हो .....ये गलत तो नही है .....यश हो ......कीर्ति हो .........ये आपको गलत लग रहा है ..!

मेरे मित्र सन्यासी नें ये बात कही थी .....................।

अच्छा !   अच्छा  एक  काम करो ................सामनें एक कुँआ है !

उन सन्यासी मित्र नें कहा ..........आपको जल लाकर दूँ  ?

नही .....मुझे जल नही  चाहिये .............महात्मा नें कहा ।

वहाँ एक कुँआ है .............उस कुँए में    एक पत्थर लगा है .....उस पत्थर में  एक बुढ़िया का नाम है .......वो नाम क्या है   ये बताओगे ?

हाँ .......अभी बताता हूँ ........वो मेरे मित्र  सन्यासी उठे  और गए  उस कुँआ के पास.........नाम पढ़कर   आगये  ।

उसमें लिखा है ...."मुन्नी बाई"...............नाम याद करके आये थे  ....कुँआ जिसनें बनाया था  उस बुढ़िया का नाम ।

महात्मा जी हँसे .......बहुत बढ़िया ...................अब याद रखोगे   इस नाम को  ?  

पर बुढ़िया तो मर गयी  है ना ?

  मेरे मित्र सन्यासी नें महात्मा जी से पूछा ।

हाँ .......मर गयी है ...........अब कोई लाभ नही है उसका नाम स्मरण करनें से ..........उस बुढ़िया को कोई  लाभ या हानि नही है .....तुम्हारे नाम याद रखनें से ......और तुम्हे भी क्या लाभ  उसका नाम याद रखनें से ...........इसलिये  तुम्हारे लिये भी व्यर्थ है  उस बुढ़िया का नाम याद रखना ......और   वो बुढ़िया तो मर ही चुकी है .......है ना ?

उन सन्यासी को कैसा  लग रहा है  इन महात्मा का ये सब  बोलना ......

पर  मुझे  तो ये  बहुत पहुँचे हुए  सिद्ध महात्मा ही लग रहे हैं .......

पर कुछ  अजीब से हैं......"बात कहीं की .....और कहते हैं कही की" ।

ये शरीर काशी का है ......महात्मा जी  अपनी कुछ बात बतानें लगे थे  ।

काशी के पास में ही  एक पिसनहरिया तालाब है ...........पता है  वो तालाब किसनें बनाया ?      वो तालाब बनाया एक गरीब बुढ़िया नें .....वो गरीब बुढ़िया   आटा पीसती थी.........बस आटा पीस पीस कर  उसनें पैसे  जोड़े  और उससे तालाब बनाया था  ।

पर लोग कृतघ्नी होते हैं
....कितनें लोगों को उस बुढ़िया का नाम पता है ?

महात्मा जी खिन्न से हो गए  थे  ।

और कुछ देर बोले ही नही  ................

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तो क्या "मेरा नाम हो"  ये  कामना करना....गलत है  ?

यश चाहना  गलत है ?   मेरी कीर्ति हो  ये चाह रखना  गलत है  ?

"मेरा नाम हो"  मेरा यश हो"    ये बड़ी पवित्र इच्छा है ......इसमें गलत नही है .......महात्मा जी  बोल रहे थे  ।

जीवन में कितनी घृणित वासनाएं  जागती रहती हैं ......"उसको  मार दें" ...."उसको गिरा दें"......."उसका विनाश हो जाए" ...........ऐसी अनेक वासनाएं  जीवन में उठती रहती हैं ......इन सबसे  अच्छी तो   ये भावना है .....कि मेरा नाम हो ...मेरा यश हो  ।

यश होता है ........त्याग से ........यश होता है .......सेवा से ......यश होता है .......धर्म से ..........।   इसलिये  यश की कामना करनें वाला मनुष्य  सदैव  पाप से , अधर्म से  बचा रहता है ......ये  अच्छा है  ।

इसलिये तो  मै यश चाहता हूँ ................मै अमेरिका में  आश्रम बनाना चाहता हूँ  ।

ये बात खुश होकर कही थी मेरे उन सन्यासी नें  ।

अच्छा !      वो किताब पड़ी है .........थोडा लाकर दोगे  ?

अजीब हैं ये महात्मा जी .........बात का उत्तर देते ही नही है .......इधर उधर की बातें ही करते रहते हैं  ।

ये है   किताब ....................महात्मा जी नें हँसते हुए  वो किताब खोली .............उसमें एक कीड़ा,   पुस्तक का कीड़ा  दव कर मर गया था .........तुम मान सकते हो .....ये कीड़ा इसी किताब का लेखक था  !

इस किताब का लेखक  ये कीड़ा .....जो दव कर मर गया  ? 

चौंक गए थे  मेरे  सन्यासी मित्र .......उन महात्मा जी की बात पर ।

हाँ ......क्यों  पूर्व जन्म को नही मानते हो क्या ?  

महात्मा जी नें पूछा  ।   मानता हूँ ......सन्यासी नें उत्तर दिया  ।

तो फिर इस बात को मानने में तुम्हे क्या आपत्ति है कि ......ये  कीड़ा ही ....इस किताब का लेखक है .......।

मोह था उस लेखक को भी ............कि  मेरा नाम हो ....मेरे किताब का नाम हो .............बस यही सोचते हुए मर गया ......तो अपनी ही किताब का कीड़ा बन गया .............पर एक दिन  उसी की किताब नें  उसे दवाकर मार दिया  ।

ये कीड़ा भी नाम चाहता था ...............यश !   

अच्छा  मै चलता हूँ ................इतना कहकर  वो  महात्मा जी  चले गए बाहर ......क्यों की बाहर लोगों की भीड़ थी ............।

सन्यासी मित्र  स्तब्ध थे .......उनकी बातें सुनकर ..............

ये कीड़ा भी यश चाहता था .............नाम  चाहता था  ।

पर क्या हुआ  ?   कीड़ा बना  ?

हम लोग लौटकर  वापस आगये थे .......पर  वो सन्यासी  मौन रहे   ।

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व्यास जी !        व्यास जी ! 

मुझे  कुञ्ज में मिले  वो सन्यासी ..............

पता है   अमेरिका से कॉल  आया है .....कल ही आया है .........और मुझे बुलाया है .................।

वाह !    बधाई हो !      आप जाइए ........और नाम कमाइए  .....

मैने सहजता से कहा  ।

नही .........मैने  मना कर दिया  .....मुझे नही जाना  अमेरिका ।

उन सन्यासी नें  जब ये कहा ..........तब मै चौंक गया  था  ।

पर क्यों ?    मैने पूछा  ।

क्या लाभ ?        आत्मिक लाभ  अमेरिका में होनें से रहा ........और रही बात  मेरे नाम होनें की .......तो उससे क्या लाभ ?

कुँआ तो बुढ़िया नें भी बनाया था ......पर कौन जानता है अब उसका नाम ?    

नाम के लिए ......वो महान लेखक  कीड़ा बन गया .....और स्वयं की ही  रचना में दव कर मर गया  ! 

क्या होगा  अमेरिका जाकर ?     धर्म प्रचार करूँगा  मै  ?

ये सब किसको बहका रहे हैं  हम .? .................

मै अखण्ड वृन्दावन धाम वास करूँगा .......और अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा को   बढ़ाऊंगा .....भजन करूँगा .........अध्यात्म पर शोध करूँगा ...........निजानन्द में लीन रहूंगा ................भक्ति और प्रेम  की धारा में बहते हुए ..........अपनें आपको  मिटा दूँगा  ।

मै सुनता रहा  उनकी बातें ............उनके चेहरे में  अब नूर था .......क्यों की अब  उनके मन में "लोकैषणा" नही थी .....लोगों  में  मेरा नाम हो ....ये  इच्छा अब खतम हो गयी थी ............अब ये  अपने में थे .......अपने में  शान्त .....ठहराव आगया था इनमें ........।

ये ठहराव   उपलब्धि है ........ये  शान्ती उपलब्धि है .......ये निजानन्द की मस्ती  उपलब्धि है.....अमेरिका जाना कोई उपलब्धि नही  ।

मुझे नही बनना वह घृणित कीड़ा !

.......यही कहते हुए हँसते हैं  वो सन्यासी  ।

Harisharan

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