वैदेही की आत्मकथा - 11

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - 11 )

भूप सहस दस एकहिं बारा ....
( रामचरितमानस )

******  कल से आगे का चरित्र -

मै वैदेही .............

सुबह का समय हुआ ............मेरी सखियाँ सब आगयी थीं  ।

आज ही स्वयंवर होगा.........मेरे पिता जी नें कहा था ।

स्वयंवर तो कई महीनों से चल ही रहा है  ........मेरी माता जी नें पूछा था ....आज के स्वयंवर की विशेषता  ?

तब मेरे पिता के नेत्र सजल हो गए थे .........देवी !  मुझे पछतावा हो रहा है .........अपनी प्रतिज्ञा का ...........हाँ  कल मुझे भले ही समझाकर गए देवर्षि नारद जी ...........पर मेरा  मन कहता है ....जनक ! तुमनें  प्रतिज्ञा करके ठीक नही किया ।

..आप ऐसा न सोचें महाराज !  

मेरी माता जी  नें भी  समझाना चाहा था ।........देवी !  मै क्या करूँ  जब जब  अयोध्या के उन बड़े राजकुमार को देखता हूँ ......उनके बारें में सोचता हूँ ......तभी मेरे मन में  प्रतिज्ञा के प्रति   क्षोभ  उत्पन्न होता है ।

मै अपनी सखियों के सहित  अपनें महल  से  पिता जी की सारी बातें सुन रही थी .............।

देवी  सुनयना !    ऋषि विश्वामित्र जानें की बातें कर रहे थे .........

ओह !  ये बात मैने जैसे ही सुनी.......मेरा हृदय "धक्क्" करके रह गया ।

मैने उन्हें समझाया ........मैनें उनसे प्रार्थना की ..........कि बस  11 दिन और रुक जाएँ जनकपुर में ..........उस दिन यज्ञ की पूर्णाहुति है ......और  स्वर्ग से देवता स्वयं आयेंगें  और अपना भाग स्वीकार करेंगें ......आप देवों के दर्शन तो कर लें !       

क्या कहा महाराज  ऋषि विश्वामित्र नें  !     मेरी माता नें पूछा था ।

उन्होंने कहा .............नही ........देवों को देखनें की मेरी कोई इच्छा नही है .....और रही  इन अयोध्या के राजकुमारों की बात .....तो इनका कहना है कि हमारी  अयोध्या में  आये दिन आते रहते हैं  देवता लोग  .....इसलिये इनकी भी कोई  विशेष रूचि नही है .....देवों को देखनें की  ।

हाँ .........महाराज जनक !   आप इन अवध के राजकुमारों को ......पिनाक के दर्शन अवश्य करा दें  ..............क्षत्रिय बालक हैं ना  पिनाक ही इनके आकर्षण का केंद्र है .............।

ठीक है ब्रह्मर्षि विश्वामित्र  !     मैने वैसे विचार किया था .......कि आज के 11 वें दिन  ही पिनाक को  रँग भूमि में  लाऊँगा .......पर जब आप जानें का हठ ही कर रहे हैं   तो  आज ही .................।

देवी !      मैने आज्ञा दे दी है   .........रँग भूमि में पिनाक को लेकर  जाया जा रहा है .......आप भी शीघ्र  तैयार हो जाइए ....और  मेरी प्राणाधिका पुत्री मैथिली को भी तैयार कर दीजिये ..............मै  समस्त राजाओं और राजकुमारों को  आमन्त्रित करता हूँ .........जो यहाँ  आपहुँचे हैं  ।

इतना कहकर  मेरे पिता  चले गए ..........

मेरी सखियाँ मुझे सजानें में लग गयी थीं ...................पर ये क्या ! मै आईने में अपने को देखती .....तो मुझे  अवध के वो बड़े राजकुमार ही  दिखाई देते ...............उफ़ !  मुझे क्या हो गया है  ।

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वह रंगभूमि   विशाल थी .......................चारों ओर  राजा और राजकुमार सब बैठे थे ...........................

पाँच हजार सैनिकों के द्वारा खींची जा रही थी  वो लौह मञ्जूषा .......

जिस लौह मञ्जूषा में   अष्ट चक्र  अंकित था .........

और हाँ ............मात्र पाँच हजार सैनिक ही नही ...........आगे से  शताधिक हाथी भी उस मञ्जूषा को खींच रहे थे ...........उसी मञ्जूषा में रखा था ........पिनाक  धनुष  ।

जैसे तैसे  लेकर आया गया था  उस लौह मञ्जूषा को ........

फिर सबके सामनें उसे खोला गया ...........और खोल कर   वैसे ही रख दिया था........क्यों की उठानें की तो हिम्मत ही किसी में नही थी  ।

ऋषि विश्वामित्र के साथ  वह  दो राजकुमार भी आये ............

आहा !    मै तो देह सुध भूल ही गयी थी    उन्हें देखते ही ........

मेरा हृदय  बहुत तेज़ी से धड़कनें लगा था ..............मै उन्हें देखकर असहज सी हो गयी थी ........कभी नीचे देखती ..........कभी  अपनें आपको सम्भालती ...........लोगों को पता न चले ..........इसलिये अपनें को सहज बनानें का असफल प्रयास कर रही थी   ।

हाँ ........एक बार   उन बड़े राजकुमार नें मेरी ओर देखा ............

क्या गहरी नजर थी उनकी ........सीधे हृदय की गहराई में उनकी नजर  चली गयी थी ...........उफ़  ।

आपके भाल में स्वेद  बिन्दु आगये हैं ........पोंछ लीजिये  किशोरी जी !

मेरी सखी नें मुझे बताया ...........मैने  तुरन्त पोंछ लिया   ।

अपनें उच्च सिंहासन से उतरे थे  मेरे पिता विदेह राज जनक ।

आगे बढ़कर उन्होंने ब्रह्मर्षि विश्वामित्र जी को प्रणाम किया था ....

और  राजकुमारों के सिर में हाथ रखा था ............।

आइये   आइये  !    ब्रह्मर्षि !    आप राजकुमार भी  आगे आएं .......

मेरे पिता जी नें  उन सबको आगे बुलाया .................

ये है  शिव धनुष पिनाक .............देखिये  इस पिनाक को   ।

देखो  राम !  ये है  धनुष पिनाक .................ब्रह्मर्षि नें  बड़े राजकुमार को देखनें के लिए कहा  ।

मुस्कुराते हुए  उन बड़े राजकुमार नें देखना शुरू किया था ..........

हे  राजकुमारों ! ये साधारण धनुष नही है......मेरे पिता जी हँसते हुए बोले ....रावण जैसा महावली इस पिनाक को उठा तक नही पाया  ......

एक महिनें से चल रहा है  ये धनुष यज्ञ  मिथिला में .................और आज तक   कई हजारों राजा बदल चुके हैं ...........कमसे कम  दस हजार राजाओं नें अपनी अपनी शक्ति आजमाली है ......पर ........

मेरे पिता के मस्तक में उस समय  चिन्ता की लकीरें स्पष्ट देखी जा सकती थी.............

उस समय  बड़े राजकुमार  पिनाक की प्रदक्षिणा कर रहे थे .....मानों घूम घूम के उस पिनाक को देख रहे हों............

मेरे पिता जी समझ गए   .............हे राजकुमार !      मै तुम्हे उठानें के लिए तो नही कह सकता .........क्यों की   बड़े बड़े द्वीप द्वीप के राजा और उनके राजकुमार आये ......और अपनी शक्ति आजमाके चले गए .......किसी से ये पिनाक  कम्पित भी नही हुआ  ।

हे ब्रह्मर्षि !   कभी कभी  तो मेरे मन में आता है ..............मैनें गलती कर दी  ये प्रतिज्ञा करके ............क्यों की  इस पृथ्वी में कोई  वीर बचा ही नही ........!

ओह ! जैसे ही  ये शब्द  मेरे पिता  जी के मुख से निकले ..........बड़े राजकुमार नें  पिनाक के इर्द गिर्द घूमना बन्द कर दिया  ।

हाँ ........मुझे  तो लगता है ........ये पृथ्वी वीरों से  विहीन हो गयी है ।

जनक !       

ओह !    ऐसे  कौन बोलनें की हिम्मत करता !  ...............

जैसे ही मैने  देखा ..........तो सूर्य के समान  लाल मुख मण्डल हो गया था .......छोटे राजकुमार का .......यानि लक्ष्मण भैया का  ।

उस समय  न महाराज शब्द का  सम्बोधन किया था .....न राजा शब्द का ......बस सीधे  .....जनक  ! 

जनक !  तुम्हारी हिम्मत कैसे हुयी  ऐसे शब्दों का  प्रयोग करनें की ......

ये बात  छोटे राजकुमार लक्ष्मण    चिल्लाकर कह रहे थे .....पूरी ताकत से ......क्यों की उन्हें  क्रोध आगया था  ।

वीरों से विहीन हो गयी है पृथ्वी  ? 

अरे !   जिस  सभा में .......जिस रँग भूमि में     चक्रवर्ती सम्राट महाराज दशरथ के  ज्येष्ठ पुत्र श्री राम हों ........उस सभा में ऐसे शब्द का प्रयोग ही वर्जित है ............लक्ष्मण  की आवाज गूँज रही थी ।

अरे ! ये धनुष क्या है  !      ये सढा गला धनुष  ............इसको तो मै एक ही हाथ में उठाकर  फेंक दूँगा  ।

अरे ! गाजर मूली की तरह इसे  तोड़ दूँगा ...............लक्ष्मण  की आवाज तेज़ से और तेज़ होती जा रही थी  ।

अरे !  इस धनुष को  मै सो योजन तक कन्धे में रख दौड़ूं ............अरे ! इस धनुष के टुकड़े टुकड़े करके ....फेंक दूँ ...........

क्रोध से  छोटे राजकुमार काँप रहे थे ................

पर  मैने  देखा .............बड़े राजकुमार शान्त थे ....गम्भीर थे  ...

हाँ  मुझे याद है ..........उस समय एक बार  बड़े राजकुमार नें मेरी और देखा था ........और   हल्की मुस्कान दी थी मुझे   ।

" पर छोटे राजकुमार  तो  बड़े तेज़ हैं "

 धीरे से मेरी सखी चन्द्रकला नें   मेरे कान में कहा था   ।

मै लक्ष्मण   ये प्रतिज्ञा करता हूँ .............मै अयोध्या का  छोटा राजकुमार  प्रतिज्ञा करता हूँ .......कि जब तक  श्री राम पिनाक को नही तोड़ेंगें  तब तक  मै अपनें कन्धे में धनुष धारण नही करूँगा  ।

इतना कहकर  अपनें कन्धे का धनुष उतार कर फेंक दिया था .......छोटे राजकुमार लक्ष्मण नें ..........

अरे बाप रे !      फिर  पीछे से  मेरी सखियों   नें हँसते हुए कहा था ।

शेष चरित्र  कल...........

Harisharan

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