!!  श्रीरामानुजाचार्य चरित्र - भाग  15  !!

( शाश्वत की कहानियाँ )

!!  श्रीरामानुजाचार्य चरित्र - भाग  15  !!

शान्ताकारम भुजग शयनम्  पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगन सदृशं मेघवर्णम् सुभांगम्...
( श्रीविष्णुसहस्रनाम )

( साधकों !    मुझे बहुत प्रसन्नता है कि आप लोगों को    "शाश्वत की कहानियाँ"   अच्छी लग रही हैं......उसमें भी  "श्रीरामानुजाचार्य चरित्र" को आप जितनें मनोयोग से पढ़ रहे हैं......इससे आपकी आध्यात्मिक प्यास और बढ़े -  यही मेरी कामना है ।

शैव और वैष्णवों में  युद्ध हुआ है .......इतिहास साक्षी है  ।

दक्षिण भारत में  शैव  कुछ ज्यादा ही  खूंखार हो गए थे..."हम ही सही हैं"

"हमारा ही  मार्ग सही है"........इसका दुराग्रह  इतना बढ़ गया था ......कि लोगों को  मार कर ....पीटकर .........नाना प्रकार की हिंसा करते हुए ..भी  अपनें ही मार्ग में लाया जाए  ।

शाश्वत की टिप्पणी  यहाँ  दृष्टव्य है - 

"हम "ही" सही है......ये सोच  ठीक नही है .....हम  "भी" सही है .....ये सोच उत्तम है  ।

श्री शंकराचार्य  जी के  साथ भी यही हुआ था ......बौद्ध इस सोच से  ग्रस्त थे ......कि हम ही सही है ...........इस सोच को मिटाया  आद्य जगद्गुरु श्री शंकराचार्य नें  ।

पर  श्री शंकराचार्य जी के  इस धरा धाम को छोड़नें के बाद ........यह सोच  शैवों में आनें लगी थी  ।

अब शैवों  से तात्पर्य  श्री शंकराचार्य जी के  सिद्धान्त को माननें वालों को नही लेना चाहिए.....श्री शंकराचार्य जी को शैव माननें  से अच्छा है ....आप उन्हें अद्वैत वेदान्ती मानिये यही उनके साथ सच्चा न्याय होगा ।

दक्षिण भारत में  जो  शैव राजा हुए .........वो अति अहंकार से ग्रस्त थे ।

उन्होंने  हद्द ये की ....कि .........वैष्णव जन  जो  बड़े प्रेम से भगवान के भजन गाते थे ........जात पांत का भेद मिटाकर ............

शाश्वत लिखता है.............जब  100 वर्ष के वृद्ध हुए  आचार्य श्री रामानुज .....तब   कावेरी नदी में स्नान के लिए जाते समय  ब्राह्मण के कन्धे में हाथ रखकर जाते  थे .....और स्नान करके लौटते समय .....शुद्र के कन्धे में हाथ रखकर आते थे  ।

शाश्वत लिखता है ..........किसी नें पूछा   ......आचार्य !  आप ऐसा क्यों करते हैं ......लौटते समय  ?    जब आपनें पवित्र कावेरी नदी में स्नान कर लिया ...उसके बाद  शुद्र के कन्धे में हाथ रखकर लौटते हैं .....क्यों ?

तब  श्री रामानुजाचार्य जी  कहते थे .......वत्स !  मेरे अंदर का  सम्पूर्ण अहंकार मैने  श्री रंगनाथ  भगवान को चढ़ा दिया ......पर  अब मात्र ये .....अहंकार ही मेरे अंदर बचा है ......कि मै उच्चकुल का हूँ ....मै स्वामी हूँ .......मै ब्राह्मण हूँ  ।...........मैने   विचार किया .....ये भी तो अहंकार ही है ना ! .......मै इसे भी मिटाना चाहता हूँ ।

ऐसे  वैष्णव समाज को मिटाना चाहते थे  कुछ पागल शैव राजा ........।

आप आगे पढ़िए ...................

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****   कल के प्रसंग से आगे ..............

हे भगवन् !  आप  मैसूर की यात्रा कीजिये ........सुना है  वहाँ  वैष्णवता का प्रचार प्रसार आवश्यक है  !

श्री रामानुजाचार्य जी  से कूरेश जी नें प्रार्थना की थी .......।

पर श्री रंगम से जानें को   तैयार ही नही हो रहे थे  श्री रामानुजाचार्य ।

कूरेश जी नें   महापूर्ण जी को आगे किया .........हे आचार्य श्री रामानुज !

कूरेश जी ठीक कह रहे हैं ............आप मैसूर की यात्रा में जाइए ......और वहाँ  जाकर वैष्णवता का प्रचार प्रसार कीजिये .....।

श्री रामानुजाचार्य जी नें  सन्त महापूर्ण जी की ओर देखा ........बड़े ध्यान से देखा ..........नजरें नीचे झुका लीं .........महापूर्ण जी नें ।

क्या बात है  कूरेश !   मुझे लग रहा है ....तुम कुछ तो छुपा रहे हो मुझसे !

रामानुजाचार्य जी नें  प्रश्न किया .......।

नही भगवन् !   कुछ नही छुपा रहे  आपसे ............बस आप जितनी जल्दी हो सके ....मैसूर के लिए निकल जाएँ .....आपका शिष्य राजा भी तो है ना  वहाँ.....उसकी भी इच्छा है  कि  कुछ दिन आप वहाँ बिताएं  ।

ठीक है .....कूरेश !  और  हे महापूर्ण जी !   आप लोगों की ऐसी सद्इच्छा है   तो हम अवश्य जायेंगें  मैसूर  ।

श्री रामानुजाचार्य जी के... हाँ ...कहनें पर  बहुत प्रसन्न हुए थे   कूरेश जी ..और महापूर्ण जी  ........दोनों ही  ।

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देवी !   मै  और महापूर्ण जी ...दोनों होकर  चोल वंशीय राजा कोलुतुंग के यहाँ जा रहे हैं  ।

कूरेश जी नें अपनी धर्मपत्नी को ये बात बताई ।

पर  वो तो बहुत दुष्ट राजा है ....मैने सुना है .....अगर उसकी बात न मानी जाए .....तो मार ही देता है  ।

अब जो भी हो ..........हे देवी !  वैष्णवता की रक्षा के लिए  ये शरीर भी चला जाए ............पति के  मुँह में  अपना हाथ रख दिया था पत्नी नें .....ऐसा मत कहिये नाथ ! 

देवी !      सदगुरुदेव भगवान  श्री रामानुजाचार्य जी  को बुलानें के लिए  पचासों सैनिक     आये थे .............कोलुतुंग नें बुलवाया था ।

कूरेश जी अपनी पत्नी को सारी बातें  बता रहे हैं  ।

मैने महापूर्ण जी से प्रार्थना की .........कि  भगवान रामानुजाचार्य जी को जैसे भी हो  रोका जाए ......उन  तक ये सूचना न पहुंचाई  जाए ....।

महापूर्ण जी और हम दोनों नें फिर विचार किया ......और  इस निर्णय पर पहुँचे कि .............आचार्य चरण को  भेज दिया जाए मैसूर ......और  महापूर्ण जी और मै  होकर  राजा कोलुतुंग के यहाँ  जाएँ  ।

हमारी योजना सफल हो गयी ..............देवी !   आचार्य चरण के शरीर की  रक्षा अभी बहुत आवश्यक है ............हमारा क्या है .........ये शरीर रहे  न रहे .............।

कूरेश जी के इतना कहनें पर .....पत्नी  गम्भीर हो गयीं ......आपको कुछ नही होगा ........मै अगर पतिव्रता हूँ ......तो आपको कुछ नही होगा ।

अपने हृदय से लगा लिया था  अपनी अर्धांगिनी को   कूरेश जी नें ।

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आओ !  आओ !     आचार्य रामानुज ! आओ !

राजा कोलुतुंग का  दरवार सजा है .........और  राजा नें जैसे ही देखा ........कूरेश जी  और    महापूर्ण जी  दोनों को देखते ही  वो बोला था ।

उसे लगा    इनमें से ही कोई रामानुजाचार्य हैं  ।

मै  रामानुज दास कूरेश हूँ .......और  ये परम वैष्णव महापूर्ण जी हैं ।

रामानुज कहाँ है ?

क्रोध से चिल्ला उठा  था  कोलुतुंग  ।

 
हम से ही चर्चा कर लो राजन् !   श्री स्वामी रामानुजाचार्य  जी की बात अभी छोड़ दो  ।

शिव से बड़ा कोई नही है  !

राजा नें अपनी मूँछें ऐंठते हुए कहा  ।

पर काशी में वहीं महादेव शिव  भगवान राम के नाम का जप करते हैं ।

कूरेश जी नें कहा  ।

तेरी हिम्मत कैसे हुयी........मेरे भगवान शिव को नीचा दिखानें की ।

राजा क्रोध से  काँपनें लगा  ।

मै तुझे हाथी के नीचे कुचलवा दूँगा ..............

चाहे कुछ भी कर लो राजन् !  पर ये कूरेश  मात्र नारायण का है ।

हा हा हा हा हा हा ............बोल -  ॐ नमः शिवाय ।
राजा चिल्लाया  ।

ॐ नमो नारायणाय ........कूरेश जी बोले  ।

पकड़ लो  हाथ.........बांध दो इसके हाथ पैर........आज्ञा मिलते ही ...कूरेश जी के और महापूर्ण जी के हाथ पैर बांध दिए थे ।

अब मिटा दो इनके मस्तक का ये खड़ा तिलक ....और लगा दो त्रिपुण्ड्र ।

तोड़ दो ......इसके गले की तुलसी .....और पहना दो  रुद्राक्ष ।

पर नही .........कूरेश जी  कुछ भी हो ...राजा थे  .........इसलिये  शक्तिशाली भी थे .........उनका गठीला शरीर ..........सैनिकों को  मस्तक का तिलक छूनें नही दिया .....गले की तुलसी को हाथ नही लगानें दिया ।

मार दो  इसे ................बेचारे महात्मा महापूर्ण जी को लहूलुहान कर दिया था.........और कोड़े से मारे जा रहे थे........

बोल ......ॐ नमः शिवाय ............राजा चीख रहा था ।

पर  ॐ नमो नारायणाय ......महापूर्ण जी जोर जोर से बोल रहे थे ।

महापूर्ण जी के    रक्त से  सभा की धरती लाल हो गयी थी  ।

कूरेश जी  से ये देखा नही गया ......एक उछाल मारी  कूरेश जी नें ....और सीधे   राजा के गर्दन को पकड़ लिया ।

राजा चिल्लाया..........इस  वैष्णव की आँखें निकाल दो .......

ये ज्यादा ही   आँखें दिखाता है ...........कूरेश जी की क्रोध से   लाल लाल आँखें हो गयीं थीं  ........।

पकड़ लिया  राजा के सैनिकों नें .......सलाखें गर्म की गयीं ........और.....................फोड़ दीं  आँखें   कूरेश जी की  ।

छोड़ दो अब इन्हें ............राजा नें  अपना आदेश सुनाया  ।

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महापूर्ण जी !  आप कहाँ हैं  ?

आँखें नहीं हैं  अब कूरेश जी की ..............महापूर्ण जी को हाथों से टटोल रहे हैं .......हल्की आवाज आरही थी ......ॐ नमो नारायणाय  ......।

कूरेश जी नें समझ लिया कि यही महापूर्ण जी हैं ........नयन विहीन  कूरेश जी नें ......अपनें कन्धे पर महापूर्ण जी को उठाया ......और लेकर चल दिए ......गिरते  हुए ....जैसे तैसे श्रीरंगम में  आये थे.....पर  श्री रंगम की भूमि में आते ही   महापूर्ण जी नें अपनें शरीर को त्याग दिया ।

कूरेश जी की पत्नी  दौड़ी हुयी आयीं ........और  अपनें पति और  परम सन्त महापूर्ण जी की ये दशा देखकर ......पछाड़ खाकर गिर पड़ी ।

पति अन्धे हो चुके हैं ..........और  महापूर्ण जी  शरीर को त्याग दिए हैं ।

रोती हुयी  भागी श्री रंगनाथ भगवान के पास ।

मै अगर पतिव्रता हूँ .........तो उस राजा के शरीर में कीड़े पड़ जाएँ .......

हे राजा !    तेरा शरीर गल गलकर गिरेगा.....कीड़े तुझे जीनें नही देंगें  ।

इतना श्राप देकर  पत्नी बेहोश हो गयीं कूरेश जी की ।

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गले में ही  एक फोड़ा हो गया  राजा के .....राजा कोलुतुंग के  ।

बड़े बड़े वैद्य आये .........पर  वो फोड़ा ठीक ही नही हो रहा ।

पर ये क्या ....ऐसे फोड़े अनगिनत  राजा के शरीर में होनें लगे थे ।

इतना ही नही .....उन फोड़ों में अब कीड़े पड़नें लगे .....कीड़े ।

10 दिन में ही राजा के प्राण निकल गए   .....राजा कोलुतुंग मर गया ।

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पत्नी का हाथ पकड़ कर जाते थे  श्री रंगनाथ भगवान के दरवार में ....कूरेश जी  ।

आज  आलवन्दार स्तोत्र गा रहे थे....और गाते हुए रो रहे थे कूरेश जी ।

नाथ !   अब अगर  मुझे ऐसे ही अंधा रखना है .....तो इस जीवन को ही ले लीजिये ..........जब मै आपके दर्शन ही नही कर पा रहा .....तो क्या अर्थ हुआ ...........इस जीवन को रखनें का   ।

आपके दर्शन करना चाहता हूँ .....नाथ !   इन नेत्रों से .........

इतना कहते हुए ........धरती पर धड़ाम से गिर गए ........कूरेश जी ।

जब उन्हें होश आया ..........उठे ...........

आँखें खोलीं.......ये क्या !   नाचनें लगे थे कूरेश जी तो ।

मुझे दिखाई दे रहा है ........मुझे  सब दिखाई दे रहा है ।

मुझे भगवान के दर्शन हो रहे हैं .......मुझे मेरे श्रीरंगनाथ भगवान दिखाई दे रहे हैं .......नाचनें लगे थे   कूरेश जी ।

कूरेश जी को नेत्र दे दिए थे  श्री रंगनाथ भगवान नें  ।

उस दिन पतिपत्नी दोनों  मन्दिर में नाचते रहे थे  .....

पर हृदय रोता था उनका जब परम भक्त महापूर्ण जी को याद करते थे  ।

शेष प्रसंग कल .........

Harisharan

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