"प्रसंग श्रीनाथजी और गोविन्ददास के"

         भगवान के प्रेम में डूबा हुआ मनुष्य तन-मन की सुध भूलकर पागल-सा घूमता फिरता है और वह अपने परमाराध्य से आमने-सामने होकर बात करता है। गोविन्ददास इसी तरह के अपने प्रभु में खोए रहने वाले परमभक्त थे।

                                  प्रसंग-१

          एक बार गोविन्दस्वामी श्रीनाथजी के साथ गुल्लीदण्डा खेल रहे थे, राजभोग का समय हो रहा था। भगवान बिना दांव दिए ही खेल के मैदान से भाग लिये। श्रीनाथजी को बिना दाव दिए भागता देख गोविन्ददास क्रोधित हो गया और उसने ठाकुर का पीछा किया। भागते-भागते श्रीनाथजी तो मन्दिर में घुस गए और जब गोविन्ददास की एक न चली तो उन्होंने श्रीनाथजी को गुल्ली फेंक कर मारी। गिल्ली मन्दिर के प्रांगण में आकर गिरी। गोविन्ददास अपने सखा को दबोचने के लिए जैसे ही मन्दिर में घुसने को हुआ पुजारियों ने गोविन्ददास का तिरस्कार कर उन्हें मन्दिर से बाहर निकाल दिया। प्रेमराज्य में रमण करने वाले सखा की भावना मुखियाजी और पुजारियों को समझ में न आई। बेचारा गोविन्ददास रुआंसू हुआ बाहर तो आ गया पर उसका मन अपने सखा श्रीनाथजी का छल न सह सका। वह कहने लगा–

        पोत लैकै आयौ भाजि गंवार।
        खोलि किवार धस्यौ घर भीतर, सिखै दिये लगवार।
        कबहुं   तौ   निकसैगौ   बाहर, ऐसी   दुऊंगो   मार।
        गोविन्द प्रभु सौं बैर अब करिकै, सुखी न सैबे यार॥

         गोविन्ददास रास्ते में बैठ गए। उन्होंने सोचा कि श्रीनाथजी इसी मार्ग से जाएंगे इसलिए उनसे बदला लेना सरल रहेगा। बालहठवश बदले की भावना में श्रीनाथजी का सखा जब तिलमिला रहा हो, तब भला भगवान किस प्रकार सुखपूर्वक रह सकते थे। मन्दिर में भगवान के सामने राजभोग रखा गया पर प्रभु ने भोग नहीं अरोगा। सखा रूठे हों, भूखे हों और भगवान भोग स्वीकार कर लें! यह असम्भव था। अंत में गुंसाईं विट्ठलनाथजी अपने शिष्य गोविन्ददास को मनाकर मंदिर में लाये, तब रंगीले ठाकुर ने भोग स्वीकार किया। गोविन्ददास ने भी प्रसाद ग्रहण करके अपने सखा से सुलह कर ली। इस प्रकार भगवान ने अपने पवित्र सख्यप्रेम से गोविन्ददास को धन्य कर दिया।

                                   प्रसंग-२

           एक बार पुजारीजी (भीतरिया–पुष्टिमार्ग में भगवान के सामने प्रसाद आदि लाने ले-जाने का कार्य करने वाले) श्रीनाथजी के लिए राजभोग की थाली ले जा रहे थे। गोविन्ददास ने पुजारीजी से कहा कि पहले मुझे खिला दो, फिर मन्दिर में ले जाना। यह सुनकर पुजारी को क्रोध आ गया और उन्होंने जाकर गुंसाईंजी से गोविन्ददास की शिकायत कर दी। गुंसाईंजी के पूछने पर गोविन्ददास ने सखाप्रेम के आवेश में कहा–’आपके लाला खा-पीकर मुझसे पहले ही गाय चराने निकल जाते हैं, मुझे बाद में भोजन मिलता है, इसलिए मैं बाद में जाता हूँ तो मुझे उन्हें वन-वन ढूंढना पड़ता है।’ उनके सखाप्रेम को देखकर गुंसाईंजी ने ठाकुरजी के राजभोग के साथ ही उनको खाना खिलाने की व्यवस्था कर दी। इस प्रकार गोविन्दस्वामी और श्रीनाथजी एक-दूसरे का साथ हर समय चाहते थे।

                                 प्रसंग-३

          एक बार मुखियाजी श्रीनाथजी का श्रृंगार करते समय उनकी पाग ठीक तरह से नहीं बांध पा रहे थे। श्रीनाथजी ने गोविन्दस्वामी को कहा कि तुम भीतर आकर पाग ठीक कर दो। गोविन्दस्वामी ने मन्दिर में अन्दर जाकर पाग ठीक कर दी। मुखियाजी ने गुंसाईंजी से शिकायत कर दी कि गोविन्दस्वामी तो श्रीनाथजी को छू गए हैं। तब गुंसाईंजी ने समझाया कि गोविन्दस्वामी केवल कीर्तनकार ही नहीं बल्कि श्रीनाथजी के परम कृपापात्र अल्हड़ सखा हैं।

                               प्रसंग-४

          श्रीनाथजी के साथ गोविन्दस्वामी का हास्य-विनोद चलता रहता था। एक बार गुंसाईंजी प्रभु श्रीनाथजी का श्रृंगार कर रहे थे, बाहर गोविन्दस्वामी कीर्तन कर रहे थे। गुंसाईंजी जब श्रृंगार सामग्री लेने इधर-उधर होते, तब प्रभु श्रीनाथजी एक कंकड़ गोविन्दस्वामी पर फेंक देते। परन्तु गोविन्दस्वामी प्रभु की इस हरकत को अनदेखी कर देते। देखते-ही-देखते श्रीनाथजी ने आठ कंकड़ गोविन्दस्वामी पर फेंके। तब गोविन्दस्वामी ने भी गुस्से में आकर एक बड़ा कंकड़ श्रीनाथजी पर दे मारा। कंकड़ की चोट से श्रीनाथजी विचलित हो गए और गुंसाईंजी का पहनाया हुआ सारा बहुमूल्य श्रृंगार पृथ्वी पर आ गिरा। गुंसाईंजी को गोविन्दस्वामी पर बहुत क्रोध आया पर श्रीनाथजी ने अपनी गलती बताकर गुंसाईंजी का सारा गुस्सा शांत कर दिया। आज भी इस लीला की याद में ग्वालसेवा के समय श्रीनाथजी मिश्री की बनी आठ कंकरिया अरोगते हैं।

                                   प्रसंग-५

          कभी किसी कारणवश यदि गोविन्दस्वामी श्रीनाथजी की सेवा में नहीं आते तो प्रभु अवकाश मिलते ही स्वयं उनकी कुटी पर पहुंच जाते थे। एक बार श्रीनाथजी श्यामढाक के कदम्बवृक्ष की शाखा पर बैठकर वंशी बजाने लगे। गोविन्ददास दूर बैठकर उनको देख रहे थे। इसी बीच श्यामढाक से श्रीनाथजी ने देखा कि गुंसाईंजी स्नानकर उत्थापन के लिए आ गए हैं। मन्दिर में उत्थापन का समय होने पर प्रभु उतावलेपन में वृक्ष से कूद कर भागे। जल्दी-जल्दी कूदने पर उनका वागा (वस्त्र) वृक्ष की टहनी में उलझकर फट गया। उत्थापन के समय गुंसाईंजी ने प्रभु का फटा वस्त्र देखकर गोविन्दस्वामी से इसका कारण पूछा। गोविन्दस्वामी ने गुंसाईंजी को वृक्ष की टहनी में फंसे वस्त्र के बारे में बताया जो कूदते समय फट गया था और साथ ले जाकर वृक्ष पर लटका हुआ चीर दिखलाया। श्रीनाथजी और गोविन्दस्वामी की मित्रता देखकर गुंसाईंजी का हृदय भर आया और कहने लगे–’धन्य है गोविन्दसखा, जिनके साथ खेले बिना ठाकुरजी का मन ही नहीं मानता।’
इस प्रकार गोविन्दस्वामी की अपने परमाराध्य के साथ आंख-मिचौनी जिन्दगी भर चलती रही। उनका कवि रूप अपने आराध्य के लिए काव्य करता था और भक्ति रूप में अपने इष्ट के सख्य सुख को बढ़ाते थे। तभी तो उन्होंने कहा–वैकुण्ठ में जाकर क्या होगा, वहां न तो श्यामल कालिन्दी होगी, न ही नंद-यशोदा के वात्सल्य की झांकी देखने को मिलेगी, न मुरली सुनने को मिलेगी और न राधारानी के चरणारविन्दों के दर्शन होंगे–

कहा करौं बैकुण्ठे जाइ।
जहां नहीं बंसीवट जमुना, गिरि गोवर्द्धन,  नंद  की  गाइ॥
जहां नहीं ए कुंज लता  द्रुम, मंद सुगंध  बाजत  नहिं बाइ।
कोकिल मोर हंस नहिं कूंजत,ताको बसिबो कहा सुहाइ॥
जहां नहीं बंसीधुन बाजत कृष्ण  न पुरवत  अधर  लगाइ।
प्रेम पुलक रोमांच उपजत मन क्रम वच आवत नहिं दाइ॥
जहां  नहिं  ए  भुव वृन्दावन  बाबा   नंद   जसोमति  माइ।
गोविन्दप्रभु तजि नंदसुवन कों ब्रज तजवहां बसति बलाइ॥

         धन्य हैं वे जो प्रभु प्रेम के पाश में फंस कर, मर कर अमर हो गए।

                          "जय जय श्री राधे"
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