एक सन्त थे जो हमारी किशोरीजी श्री जानकी जी को अपनी बहन मानते थे। हमेशा राघव जी से शिकायत करते कि हमने तो बड़ा यश सुनकर आपको अपनी बहन दी थी पर आपने हमारी सुकुमारी लाडली को बहुत कष्ट दिया। हमने तो लाडली को धरती पे पाँव भी नहीं रखने दिए और आपने उन्हें वन की पथरीली-काटों वाली ज़मीन पे चला दिया। हमने धूप की एक किरण भी उन पर नहीं पड़ने दी और आपने अग्नि परीक्षा करवा दी। इतने पर भी आपको सन्तोष नहीं हुआ आपने हमारी बहन को आश्रम भेज दिया। हमने तो अपनी समझ से अच्छे घर में ब्याहा था पर-- सन्त जी यही सोच कर हमेशा आँखों से आँसू बहाया करते थे। (सन्तों के भाव उन्हीं के होते हैं, उन्हें जानने को हमें खुद सन्त होना होगा, या उन भावों को जानकर हम स्वयं सन्त हो जायेंगे)
एक बार की बात है कि ‘विवाह-पंचमी’ आयी। आज सन्त जी ने सोचा कि राघव कैसे भी हैं, हैं तो अपने दामाद ही। उनके लिये रच के माला बनाई, लेकर कनक-बिहारी जू के पास पहुँचे। पुजारी जी को दे कर बोले इन्हें माला पहना दो। उत्सव के बीच प्रभु का अद्भुत श्रृंगार था, सो उस माला को किनारे रख दिया गया। अब सन्त जी को बहुत कष्ट हुआ, वो मन्दिर के पीछे जाकर फूट-फूट कर रोने लगे कि मेरी माला तक नहीं पहनी, इनको इतना घमण्ड। इन्हें अपनी पत्नी के भाई का कोई मान नहीं। इतना रोये इतना रोये कि अब श्री सीताराम जी से नहीं रहा गया। वो दोनों वहाँ प्रगट हो गए। राघव ने वही माला पहन रखी थी और श्री किशोरी जी ने सन्त जी को राखी बाँधी। सन्त जी प्रेम में मग्न थे, कुछ बोल न सके। आज जीवन का फल मिल चुका था, और वहीं वे श्री सीताराम जी में ही लीन हो गए।
"जय जय श्रीकनकबिहारीजी"
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