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"सन्त गणेशनाथ"


          छत्रपति शिवाजी महाराज के समय की बात है। मध्य  प्रदेश के बालाघाट जिले में उज्जैनी के पास एक छोटे ग्राम में गणेशनाथ का जन्म हुआ। यह कुल भगवान् का भक्त था। माता-पिता भगवान की पूजा करते और भगवन्नाम का कीर्तन करते थे। बचपन से ही गणेशनाथ में भक्ति के संस्कार पड़े। माता उन्हें प्रोत्साहित करती और वे तुतलाते हुए भगवान का नाम ले लेकर नाचते।
          पिता ने भी उन्हें संसार के विषयो में लगने की शिक्षा देने के बदले भगवान का माहात्म्य ही सुनाया था। धन्य हैं वे माता-पिता, जो अपने बालक को विषतुल्य विषय भोगो में नहीं लगाते, बल्कि उसे भगवान के पावन चरणों में लगने की प्रेरणा देते हैं। पिता-माता से गणेशनाथ ने भगवन्नाम कीर्तन का प्रेम और वैराग्य का संस्कार पैतृक धन के रूप में पाया। माता-पिता गणेशनाथ की युवावस्था प्रारम्भ होने के पूर्व ही परलोकवासी हो गये थे। घर मे अकेले गणेशनाथ रह गये। किन्तु उन्हें अब चिन्ता क्या ? हरिनाम का रस उन्हें मिल चुका था। कामिनी काञ्चन का माया जाल उनके चित्त को कभी आकर्षित नहीं कर सका। वे तो अब सत्संग और अखण्ड भजन के लिये उत्सुक हो उठे। उन्होंने एक लंगोटी लगा ली। जाडा हो, गरमी हो या है वर्षा हो, अब उनको दूसरे किसी वस्त्र से काम नहीं था। वे भगवान् का नाम कीर्तन करते, पद गाते आनन्दमय हो नृत्य करने लगते थे। धीरे धीरे वैराग्य बढता ही गया। दिनभर जंगल में जाकर एकान्त में  उच्चस्वर से नाम कीर्तन करते और रात्रि को घर लौट आते। रातको गाँव के लोगों को भगवान् की कथा सुनाते। कुछ समय बीतने पर ये गांव छोड़कर पण्ढरपुर चले आये और वहीं श्री कृष्ण का भजन करने लगे।
          एक बार छत्रपति शिवाजी महाराज पण्ढरपुर पधारे। पण्ढरपुर में उन दिनों अपने वैराग्य तथा संकीर्तन प्रेम के कारण साधु गणेशनाथ प्रसिद्ध को चुके थे। शिवाजी महाराज इनके दर्शन करने गये। उस समय ये कीर्तन करते हुए नृत्य कर रहे थे। बहुत रात बीत गयी, पर इन्हें तो शरीर का पता ही नहीं था। छत्रपति चुपचाप देखते रहे। जब कीर्तन समाप्त हुआ, तब शिवाजी ने इनके चरणोंमें मुकुट रखकर अपने खेमे में रात्रि विश्राम करने की इनसे प्रार्थना की। भक्त बड़े संकोच में पड़ गये। अनेक प्रकार से उन्होंने अस्वीकार करना चाहा, पर शिवाजी महाराज आग्रह करते ही गये। अन्त में उनकी प्रार्थना स्वीकार करके गणेशनाथ बहुत से कंकड़ चुनकर अपने वस्त्र में बाँधने लगे। छत्रपति ने आश्चर्य से पूछा -इनका क्या होगा ? आपने कहा- ये भगवान् का स्मरण दिलायेंगे।
          राजशिविर में गणेशनाथ जी के सत्कार के लिये सब प्रकार की उत्तम व्यवस्था की गयी।  सुन्दर पकवान सोने के थाल में सजाये गये, सुगन्धित जल से उनके चरण धोये स्वयं छत्रपति ने, इत्र आदि उपस्थित किया गया और स्वर्ण के पलंग पर कोमल गद्देके ऊपर फूल बिछाये गये उनको सुलाने के लिये। गणेशनाथ ने यह सब देखा तो सन्न रह गये। जैसे कोई शेर गाय के छोटे बछड़े को उठाकर अपनी मांद में ले जाये और वह बेचारा बछड़ा भय के मारे भागने का रास्ता  न पा सके, यही दशा गणेशनाथ की हो गयी। उन्हें भोग के ये सारे पदार्थ जलती हुई अग्नि के समान जान पड़ते थे। किसी प्रकार थोडा सा कुछ खाकर वे विश्राम करने गये। उस फूल बिछी शय्यापर अपने साथ लायी बडी गठरी के कंकडों को बिछाकर उन पर बैठ गये। वे रोते-रोते कहते जाते  थे- पाण्डुरंग ! मेरे स्वामी ! तुमने मुझे कहां लाकर डाल दिया ? अवश्य मेरे कपटी ह्रदय में इन भोगो के प्रति कहीं कुछ आसक्ति थी, तभी तो तुमने मुझे यहाँ भेजा है। विट्ठल ! मुझे ये पदार्थ नरक की यन्त्रणा जैसे जान पड़ते हैं। मुझे तो तुम्हारा ही स्मरण चाहिये।
          किसी प्रकार रात बीती। सवेरे शिवाजी महाराज ने आकर प्रणाम करके पूछा – महाराज ! रात्रि सुख से तो व्यतीत हुई ? गणेशनाथ जी ने उत्तर दिया- जो क्षण विट्ठल का नाम लेने में बीते, वही सफल हुये। आज की रात हरिनाम लेने-में व्यतीत हुई अत: वह सफल हुई। शिवाजी ने जब  सन्त के भाव सुने, तब उनके नेत्रों से आँसू बहने लगे।  साधु को आग्रह करके अपने यहाँ ले आने का उन्हें पश्चात्ताप हुआ। उन्होंने चरणों में गिरकर क्षमा मांगी। साधक के लिये एक सबसे बडा विघ्न है लोक प्रख्याति। प्रतिष्ठा के कारण जितना शीघ्र साधक मोह मे पड़ता है, उतनी शीघ्रता से पतन दूसरे किसी विघ्न से नहीं होता। अतएव साधक को सदा सावधान होकर शूकरो विष्ठा के समान प्रतिष्ठा से दूर रहना चाहिये। गणेशनाथ जी ने देखा कि पंढरपुर में अब लोग मुझें जान गये हैं, अब मनुष्यों की भीड़ मेरे पास एकत्र होने लगी है, तब वे घने जंगल में चले गये। परंतु फूल खिलेगा तो सुगन्धि फैलेगी ही और उससे आकर्षित होकर भौरे भी वहां एकत्र होंगे  ही। गणेशनाथ जी में भगवान का जो दिव्य अनुराग प्रकट हुआ था, उससे आकर्षित होकर भगवान् के प्रेमी भक्त वन में भी उनके पास एकत्र होने लगे ।
          गणेशनाथ जी का भगवत् प्रेम ऐसा था कि वे जिसे भी छू देते थे, वही उन्मत्त की भाँति नाचने लगता था। वही भगवन्नाम का कीर्तन करने लगता था। श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने भक्तों से एक बार कहा था- सच्चा भगवद भक्त वह है, जिसके पास जाते ही दूसरे इच्छा न होने पर भी विवश् की भाँति अपने आप भगवान् का नाम लेने लगें। गणेशनाथ जी इसी प्रकार के भगवान् के भक्त थे।
          श्री गणेशनाथ जी के प्रेम की महिमा अपार है। वे जब भगवान के प्रेम में उन्मत्त होकर पांडुरंग विट्ठल ! पांडुरंग विट्ठल ! विट्ठल रुक्मिणी ! कहकर नृत्य करने लगते थे, तब वहां के सब मनुष्य उनके साथ कीर्तन करने को जैसे विवश हो जाते थे। ऐसे भगवद्भक्त तो नित्य भगवान् को प्राप्त हैं। वे भगवन्मय हैं। उनके स्मरण से, उनके चरित का हदय में चिन्तन करने से मनुष्य के पाप ताप नष्ट हो जाते हैं और मानुष हृदय में भगवान् का अनुराग जागृत हो जाता है।

                          "जय जय श्री राधे"
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